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संपादकीय प्रस्तावना

निघंटुः आर्यभाषा का प्रथम शब्दकोश (सामाम्नाय)

वैदिक (विरल या क्लिष्ट) शब्दों के संग्रह को 'निघंटु' कहते थे । 'यास्क' का रिरुक्त वैदिक निघंटु का भाष्य है । यास्क से पुर्ववर्ती निघंटुओं में एकमात्र यही निघंटु उपलब्ध है । पर 'निरुक्त' से जान पड़ता है के 'यास्क' के पूर्व अनेक निघंट बन चुके थे । इस विषय की संक्षिप्त चर्चा आगे होगी । यहाँ 'यास्क' द्वारा व्याख्यात 'निघंटु' का परिचय दिया जा रहा है ।

यह 'निघंटु' पंचाध्यायी कहा जाता है । इसके प्रथम तीन अध्यायों को 'नैघंटुक कांड' कहा गया है । इन कांडों के शब्दों की निरुक्त के द्वितीय और तृतीय अध्यायों में 'यास्क' ने व्याख्या की है । इनमें १३४१ शब्द है, यद्यपि व्याख्या २३० शब्दों की हुई है । निघंटु के परिगणित शब्दों में संज्ञा अर्थात् नाम और आख्यात अवं अव्यय एवं अव्यय पदों का संकलन है । सबसे प्रथं पृथ्वी के बोधक २१ पर्यायवाची शब्दों का परिचय दिया गया है तदनंतर ज्वलानार्थक अग्नि के ११ पर्याय दिए गए है । इसी रीति से पूरे तीनों अध्यायों में पर्यायवाची अथवा समानार्थ- बोधक शब्दों का समूह है । इनमें भी अनेक शब्द ऐसे है जो अनेकार्थक, हैं । 'निघटु' में तो उनका संग्रह पर्यायरूप में ही हुआ है, पर 'निरुक्त' के निर्वचन में उनके अर्थ सोदाहरण बताए गए है । 'गो' शब्द की निरुक्त व्याख्या में इस शब्द के अनेक अर्थों का निर्देश है । चतुर्थ अध्याय में २७८ स्वतंत्र पदों का 'जो किसी के पर्याय नही है) एकत्रीकरण दिया गया है । इनमें मुख्यतः दो प्रकार के शब्द है— (१) वे शब्द जिनके अनेक अर्थ है और (२) वे शब्द जिनका व्याकरणमूलक संस्कार (व्यत्पुत्ति) अवगत नहीं है । अंतिम पंचम अध्याय को दैवतकांड कहा गया है जिसमें वैदिक—देवता—बोधक १५१ नाम मिलते हैं ।

इस 'निघंटु' के निर्माता का नामनिर्णय विवादास्पद है । इतना ही नहीं, इनमें कुछ विद्वान् अनेक पुरुषों की रचना मानते हैं । डा० लक्ष्मणस्वरुप इनमें प्रमुख हैं । डा० कोल्ड ने भी हस्तलिखित ग्रथों के आधार पर निर्णय दिया है कि 'निरुक्त' के पूर्वषड्क और उत्तरषड्क— दोनों की शैलियाँ भिन्न हैं और दोनों के निर्माता भी संभवतः भिन्न रहे होंगे । परंतु राजवाड़े ने डा० लक्ष्मणास्वरूप के मत का अनेक तर्कों के आधार पर खंडन किया है । ऐसे भी पंडित हैं जो 'यास्क' को ही निघटु और निरुक्त—दोनों का रचयिता मानते हैं । स्कंद दुर्ग तथा माहेश्वर आदि प्राचीन आचार्य 'निघंटु' को किसी ऐसे वेदज्ञ ऋषि का ग्रंथ मानते हैं जिसका नाम अब तक ज्ञात नहीं है ।

कोशाविद्या के विचार से 'निघंटु' ग्रंथ को विकासक्रम का आरंभिक और प्रथम उपलब्ध रूप कहा जा सकता है । इसमें विशिष्ट वैदिक ग्रंथ के शब्दों का संग्रह तो है पर वह समस्त शब्दो का न होकर कतिपय कठिन और दुर्बोध शब्दों का संकलन है । इस कोश में नाम, आख्यात और अव्यय शब्दों का संकलन किया गया है । यह गद्य माध्यम से हुआ है, छंदोबद्ध नही है । पर्यायसंकलन या अन्यसंग्रहण द्वारा इसका उद्देश्य वेद के शब्दों का अर्थ स्पष्ट करना था । इसमें तिडंन (आख्यात), सुबंत (नामपद) और अव्यय हैं ।

शब्द—संकलन—पद्धति की दृष्टि से इसमें पर्यायवाची, अनेकार्थक और विरल शब्दों का संग्रह मिलता है । इन्हें हम चार विभागों में बाँट सकते हैः—(१) समानार्थक धातुरूप, (२) एकार्थक अथवा पर्यायवाची भिन्न भिन्न शब्दों का संग्रह, (३) अनेकार्थ शब्दों का संग्रह और (४) देवताओ के प्रमुख और अप्रमुख नामों का संग्रह । अज्ञात—व्याकरण—संस्कारवाले शब्द भी संगृहीत है ।

उपलब्ध 'निघंट' के अतिरिक्त अन्य अनेक 'निघंटु' भी अवश्य ही रहे होगे । 'यास्क' के 'निरुक्त' से भी इतना स्पष्ट है कि उनसे पूर्व जिस प्रकार अनेक वैयाकरण एवं अनेक निरुक्तकार हो चुके थे उसी प्रकार उपलब्ध 'निघंटु' के अतिरिक्त अन्य 'निघंटु' भी वर्तमान थे । 'यास्क' के निर्देश (१।२० तथा ७ १५) से संकेत मिलता है कि 'निघंटु' शब्द अनेक निघंटुओं का बोधक है । आचार्य भगवद्दत्त के वक्तव्य से अनुमान किया जा सकता है कि 'निघंटु' अनेक थे। अथर्व परिशिष्ट का ४८ वाँ अंश भी कैत्सव्य द्धारा संकलित 'निघंटु' ही है। 'यास्क' ने 'शाकपूर्णि' का उल्लेख किया है । बृहद्देवता में भी 'यास्क' के साथ साथ अनेक बार उनका नाम देखकर अनुमान किया जाता है कि दोनों ही ग्रंथ—'निघंटु' और 'निरुक्त'—उन्ही के रचित थे । इधर पूना से 'शाकपूर्णि' का एक निघंटु भी प्रकाशित किया गया है । इन सबके आधार पर यह कहना कदाचित् असंगत न हो कि 'यास्क' के समय तक बहुत से निघंटु ग्रंथ निर्मित हो चुके थे ।

'यास्क' के कथनुसार 'निघंटु' का अर्थ है—वह शब्दसमुह जो वेदों से चुनकर एकत्र किए हुए शब्दों का अर्थद्योतन करे । इस अर्थद्योतन में अनेक शब्दों का अर्थद्योतन कभी एक साथ होता है और कभी पृथक् पृथक् । इसमें सामान्यतः शब्द—संकलन—विधान की निम्नलिखित विधि की संयोजना मिलती है, चाहै वे सभी विधियाँ एक निघंटु में हों अथवा न हों—(१) समानार्थक धातुओं का संग्रह, (२) किसी एक सत्व अथवा पदार्थ के नाना नामधेयों एवं अव्ययपदों का संग्रह, (३) एक शब्द के अनेक अर्थों का अभिधान और (४) देवताओं के नाम ।

प्रोपेसर 'राजवाड़े' का कथन है कि अनेक अर्थों का एक अभिधान द्वारा कथन—इस उपलब्ध 'निघटु' में नहीं है । फिर भी ऐकपदिक कांड में कुछ अनेकार्थक शब्द भी ढुंढ़ जा सकते हैं और व्याकरण की दृष्टि से अव्युत्पन्न शब्द भी । 'ऐकपदिक' कांड में तथा कथित अव्युत्पन्न शब्द लक्षण संबंधी उपर्युक्त अंगों में नही आतेत अतः कह सकते हैं कि निरुक्तोक्त अंगों की अपेक्षा यहाँ कुछ अंधिकता
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हैं । इसका संकेत यह भी हो सकता है कि 'यास्क' के पूर्ववत्ती आचार्यों ने 'निघंटु' के लिये उपर्युक्त चतुरंग लक्षण आवश्यक मान लिया था; और उस प्रकार के अनेक ग्रंत उस समय वर्तमान थे ।

निश्चय ही १००० ई० पु० के पहले से लेकर ई० पु० ८०० या ७०० तक अनेक वैदिक निघंटु निर्मित हो चुके थे । विरल और कठिन शब्दों तथा पर्यायवाची नामों और आख्यातों एवं अव्ययों का बड़े श्रम के साथ आचार्यों ने अर्थानिर्देशपूर्वक संग्रह किया था । भारतीय कोशविद्या का यह प्राचीनतम उपलब्ध रूप यद्यपि गद्य बद्ध था, तथापि परवर्ती पद्यबद्ध कोशों के लिये—विशेषतः पर्यायवाची कोशों का—पथप्रदर्शक और प्रेरणादायक रहा । 'अमरकोश' जैसे ग्रंथ पर भी जहाँ एक और निघंटुकार की पर्यायवाची शैली का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है वहाँ दूसरी ओर 'निरुक्त' के कांजत्रय का प्रभाव भी 'त्रिकांडकोश' या 'अमरकोश' पर कदाचित् पड़ा । विषय की दृष्टि से न सही, पर कांड शब्द और 'तीन की संख्या' इन दोनों अंशों में अमरसिंह ने प्रभाव ग्रहण किया हो तो आश्चर्य नहीं ।

निरुक्त के आरंभ में ही कहा गया है—'समाम्यायः समाम्नात स व्याख्यातव्यः । तदिमं समाम्नायं निघण्टचव इत्याचक्षते । अर्थात् समाम्नाय की (जो गुरुपरंपरा से वैदिकों द्वारा प्राप्त किया गया है उसकी) व्याख्या आवश्यक है । इसी को 'निघंटवः' (निघंटु) कहते हैं । इस शब्द का विकास 'निगंतवः' से हुआ है । संभवतः अनेक 'निघंटु' थे, इसी से बहुवचन में प्रयोग है । प्रथम तीन अध्यायों में 'नामपदों' और 'आख्यातपदों' की पर्यायबद्ध सूची है । चौथे अध्याय में क्लिष्ट वैदिक शब्द हैं अपने रूप में और ५वें में देवतावाचक शब्दों का संग्रह है ।

लगभग दो सहस्र वर्षों बाद १८ वीं शती में 'भास्करराय' नामत एक महाविद्वान् ने 'वैदि्क कोश' का निर्माण किया था । उक्त कोश में वैद्रिक 'निघंटु' के शब्दों और उनके अर्थों पद्यबद्ध संयोजन किया गया है ।

वैदिक निघंटुओं की परंपरा—कदाचित् आगे चलकर लुप्त हो गई । परंतु अथर्ववेद के उपवेद—आयुर्वेद—में इस नाम के ग्रंथों की परंपरा चलती रही । आयुर्वेद के परंपराकथित अवतारी आचार्य 'ध्न्वंतरि' द्वारा विरचित एक 'धन्वतंरीरि' निघंटु' है । किंवदंती- अनुसारी श्लोक में 'निक्रमादित्य के नवरत्नों में इनका नाम सर्वप्रथम आता है । 'अमरकोश' की क्षीरस्वामीकृत टीका (वनोषधिवर्ग—श्लोक ५०) के अनुसार ध्नवंतरि को 'अमरसिंह' से प्राचीन माना जाता है । संभवतः चतुर्थ शतक से पूर्व इनका काल रहा होगा । नौ अध्याय के इस ग्रंथ में पारिभाषिक शब्दों के अर्थ के साथ साथ उनके गुण दोष का भी इसमें वर्णन हैः श्लोकबद्ध यह 'वैद्यकनिघंटु'—संभवतः परवर्ती तद्वर्गीय ग्रंथों का प्रेरणाधार रहा । 'माधवनिदान' (प्रसिद्ध वैद्यक ग्रंथ) के निर्माता 'माधवकर' (लगभग आठवीं नवीं शती) द्वारा 'पर्यायरत्नमाना' नाम से एक वैद्यक कोश भी रचित माना जाता है । 'हेमचंद्र' ने भी 'निगंटुशेष' नामक ग्रथ का निर्माण किया था । १८ वीं शती के उत्तरार्ध में अनेकाशस्त्रविद्याविशारद काष्ठा नगरोराज 'मदनपाल ने १७७४ ई० में 'मदनपाल निघंटु' (या 'मदनपाल विनोद' नामक विशाल ग्रंथ बनाया था । इसमें मराठी के भी अनेक पर्यायशब्द उरलब्ध है ।)

संस्कृत कोशः प्राचीन (अमरकोश पूर्ववर्ती)

वैदिक निघंटुकोशों और 'निरुक्त ग्रंथों' के अनंतर संस्कृत के प्राचीन और मध्यकालीन कोश हमें उपलब्ध होते हैं । इस संबंध में 'मेक्डानल्ड' ने माना है कि संस्कृत कोशों की परंपार का उद्भव (निघटु ग्रंथों के अनंतर) धातुपाठों और गणपाठों से हुआ है । पाणिनीय अष्टाध्यायी के पूरक पारिशिष्ट रूप में धातुओं और गणशब्दों का व्याकरणोपयोगी संग्रह—इन उपर्युक्त पाठों में हुआ । पर उनमें अर्थनिर्देश न होने के कारण उन्हे केवल धातुसूची और गणसूची कहना अधिक समीचीन होगा ।

आगे चलकर संस्कृत के अधिकांश कोशों में जिस प्रकार रचनाविधान और अर्थनिर्देश शैली का विकास हुआ है वह धातुपाठ या गणापाठ की शैली से पूर्णतः पृथक् है । निघंटु ग्रंथों से इनका स्वरूप भी कुछ भिन्न है । निघंटुओं में वैदिक शब्दों का संग्रह होता था । उनमें क्रियापदों, नामपदों और अव्ययों का भी संकलन किया जात था । परंतु संस्कृत कोशों में मुख्यतः केवल नामपदों और अव्ययों का ही संग्रह हुआ ।

'निरुक्त' के समान अथवा पाली के 'महाव्युत्पत्ति' कोश की तरह इसमें व्युत्पत्तिनिर्देश नहीं है । वैदिक निघंटुओं में संगृहीत शब्दों का संबंध प्रायः विशिष्ट ग्रंथों से (ऋग्वेदसंहिता या अथर्वसंहिता का अथर्वनिघंटु) होता ता । इनकी रचना गद्य में होती थी । परंतु संस्कृत कोश मुख्यतः पद्यात्मक है और प्रमुख रूप से उनमें अनुष्टुप् छंद का योग (अभिधानरन्तमाला आदि को छोड़कर) हुआ है । संस्कृत कोशों द्वारा शब्दो और अर्थ का परिचय कराया गया हैः धनंदय, धरणी' और 'महेश्वर' आदि कोशों के निर्माण का उद्देश्य था संभवतः महत्वपूर्ण विरलप्रयुक्त और कविजनोपयोगी शब्दों का संग्रह बनाना ।

संस्कृत कोशों का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने से हमें इस विषय को सामान्य जानकारी प्राप्त हो सकती है । इस संबंध में विद्वानों ने 'अमरसिंह' द्वारा रचित और सर्वाधिक लोकप्रिय—'नामलिंगानुशासन' (अमरकोश) को केंद्र में रखकर उसी आधार पर संस्कृत कोशों को तीन कालखंडों में विभाजित किया है—(१) अमरकोश- पूर्ववर्ती संस्कृत कोश, (२) अमरकोशकाल तथा (३) अमरकोशपरवर्ती संस्कृत कोश ।

'अमरसिंह' के पूर्ववर्ती कोशों का उनके नामलिंगानुशासन' में उल्लेख नहीं मिलता है । परंतु 'समाहृत्यान्यतन्त्राणि' के ध्वन्यार्थ का आधार लेकर 'अमरकोश' की रचना में पूर्ववर्ती कोशों के उपयोग का अनुमान किया जा सकता है । 'अमरकोश' की एक टीका में लब्ध 'कात्य' शब्द के आधार पर 'कात्य' या 'कात्यायन' नामक 'अमर'—पूर्ववर्ती कोशकार का और पाठांतर के आधार पर व्याडि नामक कोशाकार का अनुमान होता है । 'अमरकोश' के टीकाकार 'क्षीरस्वामी' के आधार पर 'धन्वतंरि' के 'धन्वतरपिनिघंटु' नामक वैद्यक निघंटु (कोश) का संकेत मिलता है । 'महाराष्ट्र शब्दकोश' की भूमिका में 'भागुरि' के
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कोश को भी—जिसका 'त्रिकांडकोश' था—'अमर—पूर्ववती' बताया गया है । यह कोश दक्षिण भारत की एक ग्रथसूची में आज भी उल्लिखित है । 'रंति या 'रंतिदेव' और 'रसभ' या 'रसभपाल' को भी (महाराष्ट्र शब्दकोश की भूमिका के आधार पर) 'अमर—पूर्ववर्ती' कोशकार कहा गाय है ।

'सर्वानंद' ने 'अमरकोश की अपनी टीका में बताया है कि 'व्याडि' और 'वररुचि' आदि के कोशों में केवल लिंगों का संग्रह है और 'त्रिकांड' एवं 'उत्पलिनी' में केवल शब्दों का । परंतु 'अमरकोश' में दोनों की विशेषताएँ एकत्र संमिलित हैं । इस प्रकार 'व्याडि', 'वररुचि' (या कात्य) 'भागुरि' और 'धन्वंतरि' आदि अनेक कोशकारों का क्षीरस्वामी ने अमर—पूर्ववर्ती कोशकारों और 'त्रिकांड', 'उत्पलिनी', 'रत्नकोश' और 'माला' आदि अमर—पूर्ववर्ती कोशग्रोथों का परिचय दिया है ।

अमरकोशकाल (रचनाकाललगभग चौथी पाँचवी शती)

अमरकोश की महता के कुछ कारण हैं । यद्यपि तत्पूर्ववर्ती कोश ('धन्वतरिनिघंटु' तथा पांडुलिपिसूची में उल्लिखित एकाध अन्य ग्रंथ को छोड़कर) आज उपलब्ध नहीं हैं तथापि यह अनुमान किया जाता है कि प्राचीन कोशों में दो प्रकार की शैलियाँ (कदाचित्, प्रचलित थीं— (१) कुछ कोश (संभवतः) नामों (सज्ञाओं) का ही और कुछ लिंगों का ही निर्देश करते थे । (कदाचित् दो एक कोश धातुसूची भी प्रस्तुत करते थे ।) इन्हें नामतंत्र (नामपारायणात्मक) तथा लिंगतंत्र (लिंगपारायणत्मक) कहा जाता था । द्वितीय विधा के कोशों में लिंगों का विवेचनात्मक निर्देशन ही मुख्य विषय रहता था । पर 'अमरसिंह ने अपने कोश में दोनों का एक साथ अत्यंत प्रौढ़ संयोजन और विवेचन किया है । आरंभ में ही उन्होंने तीसरे से पाँचवे श्लोक तक अपने कोश में प्रयुक्त नियमों और पद्धति का स्पष्ट निर्देश किया है । इनके आधार पर शब्दार्थ के साथ ही साथ लिंग का निर्णय भी होता है ।

तीन कांडों के इस ग्रंथ में क्रमशः दस, दस और पाँच वर्ग हैं । उपक्रम भाग में निर्दिष्ट पद्धति के अनुसार नामपदों के लिंग का आद्यंत निर्देश किया गया है । इसी कारण इसका अभिधान 'नामलिंगानुशासन' है । इसकी विशिष्टता का परिचय देते हुए स्वयं ग्रंथकार ने बताया है कि अन्य तंत्रों से विवेच्य विषय का समाहार करते हुए संक्षिप्त रूप में और प्रतिसंस्कार द्वार उत्कृष्ट रूप से वर्गों में विभक्त—इस नामलिंगानुशासन' को पूर्ण बनाने का प्रयास हुआ है । यही इसकी विंशेषता है ।

सुव्यविस्थित पद्धित के अनुसार कांडों और वर्गों का विभाजन किया गया है । वस्तुतः देखा जाय तो प्रथम दो कांड इस कोश का पर्यायवाची स्वरूप प्रस्तुत करते हैं ओर तृतीय कांड में नाना प्रकृति के इतर नामपदों का संग्रह है । विशेष्यनिघ्न वर्ग में विशेष्या- नुसारी लिंगादि में प्रयुक्त होनेवाले नामपदों का संग्रह है । 'संकीर्ण' वर्ग में प्रकृति प्रत्यादि के अर्थ द्वारा लिंग की ऊहा का विवेचन हुआ है । नानार्थ' वर्ग में नानार्थ नामों का 'कांत', 'खांत' आदि क्रम के अनुसार संग्रह किया गया है । चतुर्थ वर्ग अव्यय शब्दों को संकलित करनेवाला है, और अतिम वर्ग लिंगादिसंग्रह कहा गया है एव उसमें शास्त्रीय और व्याकरणनियमानुसारी आधार को लेकर लिंग का अनुशासन मुख्य रूप से तथा गौण रूप से अन्य अनुक्त-लिंगनिर्देश की क्रमबद्ध पद्धति बताई गई है ।

यह कोशग्रंथ मुख्यतः पर्यायवाची ही है । फिर भी तृतीय कांड के द्वार, जिसे हम आधुनिक पदावली में परिशिष्टांश कह सकते हैं, इस कोश की पूर्ण और व्यापक तथा उपयोगी बनाया गया है ।

अमरकोशपरवर्ती अमरपरवर्ती काल में संस्कृत कोशों की अनेक विधाएँ लक्षित होती हैं—कुछ कोश मुख्यतः केवल नानार्थ कोश के रूप में हमारे सामने आते है, कुछ को समानार्थक शब्दकोश और कुछ को अशंतः पर्यायवाची कोश कह सकते हैं ।

इन विधाओं के अतिरिक्त ऐसे कोश भी मिलते हैं जिनमें क्रमशः एकाक्षर, द्वायक्षर, त्यक्षर और नानाक्षर शब्दों का योजनाबद्ध रूप से संकलन हुआ है । 'द्विरूप' कोश भी बने है ।

इनके अरिरिक्त 'पुरुषोत्तमदेव' का ग्रंथ 'वर्णदेशना' है, जिसमें लिखावट में स्वल्पाधिक भेदों के कारण होनेवाले वर्णाविन्यास संबंधी वैरूप्य परिचय मिलता है । इन्हीं का एक कोश 'त्रिकांडकोष' भी है जिसमें अमरसिंह के कोश में छूटे हुए, पर तदयुगीन' भाषा में प्रचलित, शब्दों का संग्रह है । 'पुरुषोत्तमदेव' की ही एक रचना 'हारावली' भी है, जिसमें विरल प्रयोगवाले 'एकार्थ' और 'अनेकार्थ' शब्दों के दो भाग हैं । स्वयं लेखर ने लिखा है कि इस ग्रंथ में अत्यंत विरल शब्दों का संग्रथन हुआ है ।

'अमरसिंह' के अनंतर कोशकारों और कोशग्रंथों पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है । पर्यायवाची कोश बहुत कुछ अमरकोश से प्रभाव ग्रहण कर लिखे गए । 'नानार्थ' या 'अनेकार्थ' कोश भी अमरकोश के नानार्थ वर्ग के आधार पर प्रायः बहुमुखी विस्तारमात्र रहे हैं । 'विश्वप्रकाश' कोश में अवश्य कुछ अधिक वैशिष्ट दिखाई देत है । वह विलक्षण 'नानार्थकोश' है जो अनेक अध्ययों में विभक्त है । प्रत्येक अध्याय में एकाक्षर, द्वयक्षर आदि क्रम से सप्ताक्षर शब्दों तक का संकलन है । 'कैकक', 'कद्विक', आदि भी अध्यायों के नाम हैं । 'अमरकोश' की तरह ही शब्द के अंतिम वर्णानुसार कांत, खांत आदि रूप में शब्दों का अनुक्रम है । उनका 'शब्द—भेद—प्रकाशिका' नामक ग्रंथ भी वस्तुतः इसी का अन्य परिशिष्ट है । इसके चार अध्यायों में क्रमशः 'शब्दभेद', 'वकारभेद', 'ऊष्मभेद' और 'लिंगभेद' नामक चार विभिन्न भेद हैं । ऐतिहासिक क्रम से संस्कृत कोशों का निर्देश नीचे किया रहा हैः

शाश्वत का अनेकार्थसमुच्चय नामक नानार्थ कोश है । समय पूर्णतः निश्चित न होने पर भी ६०० ई० के आसपास के काल में इसकी रचना मानी जाती है । इसी को शाश्वतकोश भी कहते हैं । 'अमरकोश' के संक्षिप्त नानार्थ वर्ग का यह विस्तार जान पड़ता है । ८०० अनुष्टुप' छंदों के इस कोश को छह भागो में विभक्त किया गया है । आद्य तीन भागों में क्रमबद्ध रूप से शब्द के अर्थ क्रम से चार चरणों (पूरे श्लोक), दो चरणों (आधे श्लोक), और एक चरण में दिए गए हैं ।
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चौथे भाग में एक एक चरण में नानार्थबोधक शब्द है और पंचम तथा षष्ठ विभागों में अव्यय हैं ।

भट्ठ हलायुध (समय लगभग १० वीं० शताब्धी ई०) के कोश का नाम अभिधानरत्नमाला है, पर हलायुधकोश' नाम से यह अधिक प्रसिद्ध है । इसके पाँच कांड (स्वर, भूमि, पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं । प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं, पंचम में अनेकार्थक तथा अव्ययशब्द संगृहीत है । इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त, वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत है । रूपभेद से लिंग- बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है । ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है । 'पिंगलसूत्र' की टीका के अतिरिक्त 'कविरहस्य' भी इनका रचित है जिसमें 'हलायुध' ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है ।

यादवप्रकाश (समय १०५५ से १३३७ के मध्य) का वैजयंती- कोश अत्यंत प्रसिद्ध भी है और महत्वपूर्ण भी । इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । यह बृहदाकार भी है और प्रामाणिक भी माना गया है । इसकी सर्वप्रमुख विशेषता है । नानार्थ भाग की आदिवर्ग- क्रमानुसारी वर्णक्रमयोजना जिसमें आधुनिक कोशों की अकारादि- वर्णानिक्रमपद्धति का बीज दृष्टिगोचर होता है । परंतु कोठोरता और पूर्णता के साथ इस नियम का पालन नहीं है । केवल प्रथमाक्षर का आधार लिया गया है—दितीय, तृतीय आदि अक्षर या ध्वनि का नहीं । इसके दो भाग हैं—(१) पर्यायवाची और (२) नानार्थक । दोनों ही भाग—अमरकोश की अपेक्षा अधिक संपन्न है । नानार्थभाग के तीन का में द्वयक्षर, त्र्क्षर और शेष शब्दो को संकलित किया गया है । नानार्थभाग के कांडों का अध्याविभाग— उपप्रकरणों में लिंगानुसार (पुल्लिंगाध्याय, स्त्रीलिंगाध्याय, नपुंसकलिंगाध्याय, अर्थल्लिंगाध्याय और नानालिंगाध्याय) हुआ है । अंतिम चार अध्यायों में और भी अनेक विशेषताएँ हैं । अमरकोश की परिभाषाएँ संक्षेपीकृत रूप से गृहीत है । इसमें कुछ वैदिक शब्द भी संगृहीत है ।

हेमचंद्र—संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है । वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे । वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ ते, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार ते और महान् कोशकार भी थे । वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे (समय १०८८ से ११७२ ई०) । संस्कृत में अनेक कोशों की रचना के साथ साथ प्राकृत—अपभ्रंश—कोश भी (देशीनाममाला) उन्होंने संपादित किया । अभिधानचिंतामणि (या 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' इनका प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है । छह कांडों के इस कोश का प्रथम कांड केवल जैन देवों और जैनमतीय या धार्मिक शब्दों से संबंद्ध है । देव, मर्त्य, भूमि या तिर्यक, नारक और सामान्य—शेष पाँच कांड हैं । 'लिंगानुशासन' पृथक् ग्रंथ ही है । 'अभिधानचिंतामणि' पर उनकी स्वविरचित 'यशोविजय' टीका है—जिसके अतिरिक्त, व्युत्पत्तिरत्नाकर' (देवसागकरणि) और 'सारोद्धार' (वल्लभगणि) प्रसिद्ध टीकाएँ है । इसमें नाना छंदों में १५४२ श्लोक है । दूसरा कोश 'अनेकार्थसंग्रह (श्लो० सं० १८२९) है जो छह कांडों में है । एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर आदि के क्रम से कांडयोजन है । अंत में परिशिष्टत कांड अव्ययों से संबंद्ध है । प्रत्येक कांड में दो प्रकार की शब्दक्रमयोजनाएँ हैं—(१) प्रथमाक्षरानुसारी और (२) 'अंतिमंक्षरानुसारी'। 'देशीनाममाला' प्राकृत का (और अंशतः अपभ्रंश का भी) शब्दकोश है जिसका आधार 'पाइयलच्छी' नाममाला है'।

महेश्वर (११११ई०) के दो कोश (१) विश्वप्रकाश और (२) शब्दभेदप्रकाश हैं । प्रथम नानार्थकोश है । जिसकी शब्दक्रम- यौजना अमरकोश के समान 'अंत्याक्षरानुसारी है । इसके अध्यायों में एकाक्षर से लेकर 'सप्ताक्षर' तक के शब्दों का क्रमिक संग्रह है । तदनसार 'कैकक' आदि अध्याय भी है । अंत में अव्यय भी संगृहीत हैं । 'स्त्री', 'पुम्' आदि शब्दों के द्वारों नहीं अपितु शब्दों की पुनरुक्ति द्वारा लिंगनिर्देश किया गया है । इसमें अनेक पूर्ववर्ती कोशकारों के नाम— भोगींद्र, कात्यायन, साहसांक, वाचस्पति, व्याडि, विश्वरूप, अमर, मंगल, शुभांग, शुभांक, गोपालित (वोपालित) और भागुरि—निर्दिष्ट हैं । इस कोश की प्रसिद्ध, अत्यंत शीघ्र हो गई थी क्योंकि 'सर्वानंद'और 'हेमचंद्र' ने इनका उल्लेख किया है । इसे 'विश्वकोश' भी अधिकतः कहा जाता हैं । शब्दभेदप्रकाशिका वस्तुतः विश्वप्रकाश का परिशिष्ट है जिसमें शब्दभेद, बकारभेद, लिंगभेद आदि हैं ।

मंख पंडित (१२ वीं शती ई०) का अनेकार्थ—१००७ श्लोकों का है और अमरकोश एवं विश्वरूपकोश के अनुकरण पर बना है । 'भागुरि', अमर, हलायुध, शाश्वत' और 'ध्नवंतरि के आधारग्रहण का उसमें संकेत है । शब्दक्रमयोजना अंत्याक्षरानुसारी है ।

अजयपाल (लगभग १२ वीं—१३ वी शती के बीच) के नानार्थसंग्रह नामक कोश में १७३० श्लोक हैं । से देखने से जान पड़ता है कि शाश्वतकोश या अनेकार्थसमुच्चय के आधार पर इसकी रचना की गई है । उन्हीं का अनुकरण भी उसमें आभासता है । प्रत्येक अध्याय के अंत में अव्यय शब्द है । धनंजय (ई० १२ वी० शताब्दी उत्तरार्ध के आसपास अनुमानित) की नाममाला नामक कोशकृति है । यह लगउकोश है । नाममाल नाम के अनेक कोशग्रंथ मिलते हैं । इसमें केवल २०० श्लोक हैं । कुछ पांडुलिपियों में नानार्थ शब्द नहीं है पर एक में तत्सबंद्ध ५० श्लोक हैं ।

पुरुषोत्तमदेव (समय ११५९ ई० के पूर्व)—संस्कृत में पाँच कोंशों के निर्माता माने गए हैं ।—(१) त्रिकांडकोश, (२) हारावली, (३) वर्णदेशन, (३) एकाक्षरकोश और (५) द्विरूपकोश । 'अमरोकश' के टीकाकार 'सर्वानद' ने अपनी टीका में इनके चार कोशों के वचन उदधृत किए हैं जिससे इनका महत्वपूर्ण कोशकर्तृत्व प्रकट हैं । ये बौद्ध वैयाकरण थे । 'भाषावृत्ति' इवकी प्रसिद्ध रचना है । इन्होंने 'वाचस्पति' के 'शब्दार्णव' 'व्याडि' की 'उत्पलिनी' 'विक्रमादित्य' के 'संसारवर्त' को अपना आधार घोषित किया है । 'आफ्रेक्त ग्रंथसूची में नौ अन्य (ब्याकरण और कोश के) ग्रंथों का
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पुरूषोत्तमदेव के नाम से संकेत मिलता है । इनकात्रिकांडकोश'—नाम से ही 'अमरकोश' का परिशिष्ट प्रतीत होता है । फलतः वहाँ अप्राप्त शब्दों का इसमें संकलन है । ('अमरकोश' से पूर्व का भी एक 'त्रीकांडकोश') बताया जाता है । पर उससे इसका संबंध नहीं जान पडता ।) इसमें अनेक छंद हैं और इसकी टीका भी हुई है । हारावली में पर्याय शब्दों और नानार्थ शब्दों के दो विभाग गै । श्लोकसंख्या २७० है । पर्यायवाची विभाग का तीन अध्यायों—(१) एकश्लोकात्मक (२) अर्धश्लोकात्मक तथा (३) पादात्मक—में उपविभाजन हुआ है । नानार्थ विभाग में भी—(१) अर्धश्लोक, (२) पादश्लोक और एक शब्द में दिए गए हैं । इसमें प्रायः विरलप्रयोग और अप्रसिद्ध शब्द हैं जबकि त्रिकांडकोश में प्रसिद्ध शब्द । ग्रंथकार की उक्ति के अनुसार १२ वर्षा में बड़े श्रम के साथ इसकी रचना की गई है । (१२) मास भी एक पाठ की अनुसार'। वर्णदेशना अपने ढंग का एक विचित्र और गद्यात्मक कोश है । देशभेद, रूढिभेद और भाषाभेद से ख, क्ष या ह, ड अथवा ह, घ, में होनेवाली भ्रांति का अनेक ग्रंथों के आधार पर निराकरण ही इसका उद्देश्य जान पड़ता है—'अंत्र' हि प्रयोगे बहुदश्वानां श्रुतिसाधारणमात्रेण गृहणातां खुरक्षुरप्रादौ खकराक्षकारयौः सिंहाशिंघानकादौ हकारघकारयौ..... तथः गौडा दिलिपि साधारण्याद् हिण्डीगुडोकेशादौ हकार—डकारयोः भ्रांतय उपजायन्तो । अतस्ताद्विवेचनाय क्वाचिद्धातुपरायणे धातुवृत्ति- पूजादिषु प्रव्यक्तलेखनेन प्रसिद्धी देशेन धातुप्रत्ययोणादिव्याख्यालेखनेन क्वचिदाप्तवंचनेन श्लेषादिदर्शनेन वर्णदेशनेमानभ्यते । (इंडिया आफित केटेलाग, पृ० २९४)। 'महाक्षपणक', 'महीधर' और 'वररुचि' के बनाए 'एकाक्षर' कोशों का समान 'पुरुषोत्तमदेव' ने भी एकाक्षर कोश बनाया जिसमें एक एक अक्षर के शब्द के अर्थ वर्णित हैं । द्विरूपकोश भी ७५ श्लोकों का लघुकोश है । नैषधकार 'श्रीहष' ने भी एक द्विरूपकोश लिखा था ।

केशवस्वामी (समय १२ वीं या १३ वीं शताब्दी) एक का नानार्थार्णध- संक्षेप को अपनी शैली के कारण बड़ा महत्व प्राप्त है । एक एक लिंग के एकाक्षर से षडक्षर तक के अनेकार्थक शब्दों का क्रमशः छह कांडों में संग्रह है और प्रत्येक कांड के भी क्रमशः स्त्रीलिंग, पुंल्लिंग, नपुंसकलिंग, वाच्यर्लिंग तथा नानालिंग पाँच पाँच अध्याय है । प्रत्येक अध्याय की शब्दानुक्रमयोजना में अकारादिवर्णक्रम की सरणि अपनाई गई है । 'अमरकोश' में अनुपलब्ध शब्द ही प्रायः इसमें संकलित है । ५८०० श्लोकसंख्यक इस बृहत्रनार्थकोश में कुछ बैदिक शब्दों का और ३० प्राचीन कोशकारों के नामों का निर्देश है ।

मेदिनिकर का समय लगभग १४ वी शताब्दी के आसापास या उससे कुछ पूर्ववती काल माना गया है । एक मत से ११७५ ई० के पूर्व भी इनका समय बताया जाता है । इनके कोश का नाम नानार्थशब्दकोश है । पर मेदिनिकोष नाम से वह अधिक विख्यात है । इसकी पद्धति और शैली पर 'विश्वकोश' की रचना का पर्याप्त प्रभाव है । उसके अनेक श्लोक भी यहाँ उदधुत् है । ग्रंथारंभ के परिभाषात्मक अंश पर 'अमरकोश' की इतनी गहरी छाप है कि इसमें 'अमरकोश' के श्लोक तक शब्दशः ले लिए गए हैं । इसमें कोई खास विशेषता नही है ।

मेदीनी के अनंतर के लघुकोश न तो बारबार उद्धृत् हुए है और न पूर्वकोशों के समान प्रमाणरूप में मान्य है । परंतु इनमें कुछ ऐसे प्राचीनतर और प्रामाणिक कोशों का उपयोग हुआ है जो आज उपलब्ध नहीं हैं अथवा और अशुद्ध रूप में अंशतः उपलब्ध हैं । (१) 'जिनभद्र सुरि' का कोश है अपवर्गनाममाला— जिसका नाम 'पंचवर्गपरिहारनाममाला भी है । इनका काल संभवतः १२ वीं शताब्दी के आस पास है । (२) 'शब्दरत्नप्रदीप'—संभवतः यह कल्याणमल्ल का शब्दरत्नप्रदीप नामक पाँच कांडोवाला कोश है । (समय लगभग १२९५ ई०)। (३) महीप का शब्दरत्नाकर—कोश है जिसके नानार्थभाव का शीर्षक है—अनेकार्थ या नानार्थतिलक; समय है लगभग १३७४ ई०। (४) पद्यगदत्त के कोश का नाम 'भूरिक- प्रयोग है । इसका समय लगभग वही है । इस कोश का पर्यायवाची भाग छोटा है और नानार्थ भाग बड़ा । (५) रामेश्वर शर्मा की शब्दमाला भी ऐसी ही कृति है । (६) १४ वी शताब्दी के विजयनगर के राजा हरिहरगिरि की राजसभा में भास्कर अथवा दंमडाधिनाथ थे । उन्होने नानार्थरत्नमाला बनाया । (७) अभिधानतंत्र का निर्माण जटाधर ने किया । (८) 'अनेकार्थ' या नानार्थकमंजरी'— 'नामांगदसिंह' का लघु नानार्थकारी है । (९) रूपचंद्र की रूपमंजरी—नाममाला का समय १६ वी शती है । (१०) शारदीय नाममाला 'हर्षकीर्ति' कृत है (१६२४ ई०)। (११) शब्दरत्नाकर के कर्ता 'वर्मानभट्ट वाण' हैं । (१२) नामसंग्रहमाला की रचना अप्पय दीक्षित ने की है । इनके अतिरिक्त (१४) नामकोश (सहजकीर्ति) का (१६२७) और (१४) पंचचत्व प्रकाश (१६४४) सामान्य कोश हैं ।

कल्पद्रु कोश केशवकृत है । नानार्थर्णवसक्षेपकार 'केशवस्वामी' से ये भिन्न हैं । यह ग्रंथ संस्कृत का बृहत्तम पर्यायवाची कोश है । इसमें नानार्थ का प्रकरण या विभाग नहीं है । इसमें पर्यायों की संख्या सर्वाधिक है, यथा—पृथ्वी के १६४ तथा अग्नि के ११४ पर्याय इत्यादि । 'मल्लिनाथी' टीका में उदधृत वचन के आधार पर 'केशव नामक' तृतीय कोशकार भी अनुमानित है । तीन स्कंधों के इस कोश की श्लोकसंख्या लगभग चार हजार है । स्कंधों के अंतर्गत अनेक प्रकांड हैं । लिंगबोध के लिये अनेक संक्षिप्त संकेत हैं । पर्यायों की स्पष्टता और पूर्णता के लिये अनेक प्रयोग तथा प्रतिक्रियाएँ दी हुई हैं । इसमें कात्य, वाचस्पति, भागुरि, अमर, मंगल, साहसांक, महेश और जिनांतिम (संभवतः हेमचंद्र) के नाम उल्लिखित हैं । चतुर्थ श्लोक से नवम श्लोक तक—कोश में विनियुक्त पद्धति का निर्देश किया गया है । रचनकाल १६६० ई० माना जाता है । केशवस्वामी के नानार्थर्णव कोश से यह भिन्न है ।

(१६) शब्दरत्नावली के निर्माता मथुरेश है (समय १७वी शताब्दी) । इनके अतिरिक्त कुछ और भी साधारण परवर्ती कोश हैं । (१७) कोशकल्पतरुविश्वनाथ; (१८) नानार्थपदपीठिका तथा शब्दलिंगार्थचंद्रिकासुजन (दोनों ही नानार्थकोश हैं) । इनमें प्रथम में—अंत्यव्यंजनानुसारा क्रम है और द्वितीय में तान कांड हैं जिसमें क्रमशः एक, दो और तीन लिंगों के शब्द हैं) । (२०) पर्यायपदमंजरी और शब्दार्थमंजूषा—प्रसिद्ध कोश हैं । (२१) महेश्वर के कोश का नाम 'पर्यायरत्नमाला' है— संभवतः पर्यायवाची कोश विश्वप्रकाश' के निर्माता
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महेश्वर से य भिन्न हैं । पर्यांयशब्दरत्नाकर के कर्ता धनंजय भट्टाचाई है । (२३) विश्विमेदिनी— सारस्वत भिन्न का है । (२४) विश्वकवि का विश्वनिघंटु है । (२५) १७८६ और १८३३ के बीच बनारस में संस्कृत- पर्यायवाची श्ब्दों की एक 'ग्लासरी' 'एथेनियन' ने अपने एक ब्राह्मण मित्त द्बारा अपने निर्देशन में बनवाई थी । इसमें मूल शब्द सप्तमी विभक्ति के थे और पर्याय—कर्ता कारक (प्रथमा) के परंतु संभवतः इसमें बहुत सा अंश आधारहीनता अथवा दिषपूर्ण विनियोग के कारण संदिग्ध रहा । 'बोथलिंक' का संक्षिप्त शब्दकोश भी 'ग्यलनास' के अनेक उद्धरणों से युक्त है ।

इनके अलाव क्षेमेंद्र का लोकप्रकाश, महीप की अनेकार्थमाला का हरिचरणसेन की पर्यामुक्तावली, वेणीप्रसाद का पंचनत्वप्रकाश, अने- कार्थनिलक, राघव खांड़ेकर का केशावतंस, 'महाक्षपणक की अनेकार्थ- ध्वनिमंजरी आदि साधारण शब्दकोश उपलब्ध है । भट्टमल्ल की आख्यातचीन्द्रिक (क्रियाकोश), हर्ष का लिंगानुशाषन, अनिरुद्ध का शब्दभेदप्रकाश और शिवदत्त वेद्य का शिवकोश (वैद्यक), गणितार्थ नाममाला, नक्षत्नकोश आदि विशिष्ट कोश है । लौकिक न्याय की सूक्तियाँ के भी अनेक संग्रह है । इनमें भुवनेश की लैकिकन्यायसाहसी के अलाबा लौकिक न्यायसंग्रह, लौकिक न्याय मुक्तावली, लौकिकन्यायकोश आदि है । दार्शनिक विषयों के भी कोश— जिन्हें हम परिभाषिक कहते है— पांडुलिपि की सूचियों में पाए जाते है ।

संस्कृत कोशों की टीकाओं का महत्व ।

संस्कृत में टीका, व्याख्या और भाष्य की प्रणाली विशेष महत्व रखती है । प्राय़ः सभी प्रकार के ग्रंथों में इन टीकाओं का विशेष महत्व है । इसका कारण यह है कि अनेक टीकाओं में मूल की अपेक्षा अधिक वाते, नूतन व्याख्या तथा खंड़न मंडन द्बारा नव्य मतों कि भी स्थापना की गई है । कोशग्रंथों के टीकाकारों का कृतित्व भी बड़े महत्व का है । उनमें जहाँ एक ओर नए शब्द, नवीन, अर्थ और नई व्याख्याएँ है वहीं दूसरी ओर अनेक केशकारों और कोशग्रथों के नाम भी मिलते हैं । अनेक तो ऐसे टीकाकार है जो स्वर्य ग्रंथकार है और स्वयमपि जिन्होंने अपने ग्रंथ की टीकाएँ भी लिखी है । अधिकाँश ने केवल टीकाएँ बनाई है । 'अमरकोश' की टीकाएँ सर्वाधिक और कदाचित् सर्वप्राचीन भी है । उनका अनुवादात्मक हिंदी आदि भाषओं में कोशोकरण भी किया गया है । इन टीकाओं में अनेक पूर्ववर्ती कोशों या कोशकारों के नाम और कभी कभी उद्धरण भी मिलते है । अमरकोश के टीकाकार 'क्षीरस्वामी ' तथा 'हेमचंद्र' ने 'काव्य' कोश के नानार्थ और पर्यायवाची कोशों का संकेत दिया है । इनसे यह भी लक्षित होता है कि कभि कभी शब्द की अर्थबोधक व्याख्याएँ भी वहाँ थीं— यथा— 'क्षुद्र- छिद्रसमोपेतं चालनं तितउः पुमान्' । अथवा 'स्कंधादूध्वँ तरोः शाखा कटप्री विटपी मतः ।' हेमचंद्र ने ३० कोशकारों या कोशो का उल्लेख किया है । टीका आदि के आधार पर— ,तारपल, दुर्ग, धरणीधर धर्ममुनि रंतिदेव, रुद्र विश्वरूप, बोपदेव, शुभांग (शुभांक) ,वोपालित (गोपालित), कृष्णकवि (वैभाषिक शब्दकोश) आदि नाना नाम मिलते है । 'राक्षस' .या 'रभस' के षड़थंकोश का भी उल्लेख है ।

इन कोशटीकाओं में शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भी है । 'अमरकोश' की 'रामाश्रयी' टीका में प्रत्येक शब्द की पाणिनीय व्याकरणनुसारी व्युत्पत्ति दो गई है । कभी कभी किसी में तुटियाँ ओर कभी कभी प्रयोग भी बताए गए है । सब मिलाकर इन टीकाओं को कोशवाड़ःमय का महत्वपूर्ण अंग कहा जा सकता है । वस्तुतः ये कोशों के पूरक अंग है । इनमें 'उक्त अनुक्त और दुरुक्त' विषयों का विचार और विवेचन किया गया है । अतः संस्कृत कोशो को इतिहास में इनका महत्व और योगदान —हमें कभी नहीं भूलना चाहिए ।

पाली, प्राकृत और अपभ्रंश का कोशावाड़मय

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषओं का वाड़मय भी कोशों से रहित नहीं था । पालि भाषा में अनेक कोश मिलते हैं । इन्हें बौद्धकोश भी कहा गया है । उनकी मुख्य उपयोगिता पालि भाषा के बौद्ब- साहित्य के समझाने में थी । उनकी रचना पद्यबद्ध संस्कृतकोशों की अपेक्षा गद्यमय निघंटुओं के अधिक समीप है । बहुधा इनका संबंध विशेष ग्रंथों से रहा है । पालि का महाव्युत्पति कोश । २८५ अध्यायों में लगभग नौ हजार श्लोकों का परिचय देनेवाला है । बौद्ध संप्रदाय के पारिभाषिक शब्दों का अर्थ देने के साथ साथ पशु पक्षियों, वनस्पतियों और रोगों आदि के पर्यायों का इसमें संग्रह है । इसमें लगभग ९००० शब्द संकलित है । दूसरी और मुहावरों नामधातु के रूपों और वाक्यों के भी संकलन है । पाली का दूसरा विशेष महत्व पूर्ण कोश अभिधान प्रदीपिका (अभिधानप्पदीपिका) है । यह संस्कृत के अमरकोश की रचनाशैली की पद्धति पर तथा उसके अनुकरण पर छंदोबद्ध रूप में निर्मित है । 'अमरकोश' के अनेक श्लोकों का भी इसमें पालिरूपांतरण है । इसी प्रकार भिक्षु सद्धर्मकीर्ति के एकाक्षर कोश का भी नामोल्लेख मिलता है ।

प्राकृत भाषा में उपलब्ध कोशों की संख्या कम है । जैन भांडागारों से कुछ प्राकृत और अपभ्रंश के कोशों की विद्यमानता का पता चला है । परंतु जब तक उन्हें देखने का अवसर नहीं मिलता, तब तक उनका विवरण देना ठीक नहीं है ।

धनपाल (समय ९७२ ई० से ९९७ ई० के बीच) विरचित 'पाइअलच्छीनाममाला' कदाचित् प्राकृत का सर्वप्राचीन उपलब्ध कोश है । इनके गद्यकाव्य —'तिलकमंजरी'—— के उल्लेखानुसार 'मुंजराज' ने इन्हे 'संरस्वती' उपाधि दी थी । गथाछंद में रचित, अध्यायविरहित इस कोश में क्रम से श्लोक, श्लोकार्ध और पद (चरण) एवं शब्द में पर्यायवाची शब्द निर्दिष्ट है । 'हेमचंद्र' ने अपने 'देशीनाममाला' में इसकी सहायता का टीका में उल्लेख किया है ।

हेमचंद्र रचित देशीनाममाला नाम से प्रसिद्ध प्राकृत का महत्वपूर्ण और विख्यात कोश कहा जाता है । देश शब्द वस्तुतः प्राकृत का पर्याय नहीं है, उसकी सीमा में प्राकृत और अपभ्रंश का— जो हेमचंद्र के समय तक उक्त भाषाओं के ग्रंथो में मिलते थे उन्हींका— संग्रह है । देशी से सामान्यतः आभास यह होता है कि जो शब्द संकृत तत्सम शब्दों से व्युत्पन्न न होकर तत्तत् देश की लौकिक भाषाओं के अव्युत्पन्न शब्द थे उन्हीं को देशी कहा गया है । देशज भी उन्हीं का परिचायक है । पंरतु तथ्य यह नहीं है । देशी, नाममाला के बहुत से शब्द देशज अवश्य है । परंतु जिन तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत तत्सर शब्दों
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से हेमचंद्र संबद्ध न कर सके उन्हें अव्युत्पन्न देशज शब्द मान लिया । प्राकृत के व्याकरण नियमीं के अनुसार जिनकी तदभवसिद्धि नहीं दिखाई जा सकी, उन्हीं को यहाँ देशी कहकर संकलित किया गया । परंतु 'देशीनाममाला' में ऐसे शब्दों की संख्या बहुत बड़ी है जो संस्कृत के तदभव व्युत्पन्न शब्द है । चूँकि प्राकृत व्याकरणानुसार हेमचंद्र उनका संबंध, मूल संस्कृत शब्दों से जोड़ने में असमर्थ रहे अतः उन्हें देशी कह दिया । फलतः हम कह सकसे है कि देशी शब्द का यहाँ इतना ही अर्थ है कि उन शब्दों की व्युत्पत्ति का संबंध जीड़ने में हेमचंद्र का व्याकरणाज्ञान असमर्थ रहा ।

इनके अतिरिक्त दो देशी कोशों का भी —एक सूत्नरूप में और दूसरा गोपाल कृत छंदोबद्ध —उल्लेख मिलते है । द्रोणकृत एक देशी कोश का नाम भी मिलता है । इसी तरह शिलांग का भी कोई देशी कोश रहा होगा । हेमचंद्र ने देशीनाममाला में अपना मतभेद और विरोध— उक्त केशकार के मत के साथ —प्रकट किया । हेमचंद्र के प्राकृत शब्दसमूह में उपलब्ध अनेक तत्पूर्ववर्ती देशी शब्दकोशकारों का उल्लेख मिलता है । हेमचंद्र ने ही जिन कोशकारों को सर्वाधिक महत्व दिया है उनमें राहुलक की रचना और पाद- लिप्ताचार्य का 'देशीकोश' कहा जाता है । 'जिनरत्ननकोश' में भी अनेक मध्यकालीन कोशग्रेथों के नाम मिलते हैं । अभिधानचिंमणिमाला संभवतः वही ग्रंथ है जिसे हेमचंद्र विरचित अभिधानचिंतामणि कहा गया और यह संस्कृत कोश है ।

विजयराजेंद्र सूरी (१९१३-१९२५ ई०) द्बारा संपदित, संकलित और निर्मित —अभिधानराजेंद्र— भी प्राकृत का एक बृहद् शब्दकोश है । पर तत्वतः यह जैनों के मत, धर्म और साहित्य का आधुनिक प्रणाली में रचित —सात जिल्दों में ग्रथित—महाकोश है ।— पृष्ठ संख्या भी इसकी लगभग दस हजार है । यह वस्तुतः विश्वकोशात्मक ज्ञानकोश की मिश्रित शैली का आधुनिक कोश है ।

निष्कर्ष

(१) जहाँ तक संस्कृत कोशों का संबंध है । शब्दप्रकृति के अनुसार उसके तीन प्रकारह कहे जा सकते हैं —(१) शब्दकोश, (२) लौकिक शब्दकोश और (१) उभयात्मक शब्दकोश ।

(२) वैदिक निघंटुओं की शब्द—संग्रह —पद्धति क्या थी इसका ठीक ठीक निर्धारण नहीं होता, पर उपलब्ध निघंटु के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि उसमें नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात चारों प्रकार के शब्दों का संग्रह रहा होगा । परंतु उनका संबंध मुख्य और विरल शब्दों से रहता था । और कदाचित् वेदविशेष या संहिताविशेष से भी प्रायः वे संबद्ध थे । वे संभवनः गद्यात्मक थे ।

(३) लौकिक संस्कृत की कोशपरंपरा में 'अमरपूर्व' कोशकारों की दो पद्धतियाँ थी, एक 'नामतंव' और दूसरा 'लिगतंत्न' । इस द्बितीय विधा के कोशों में सस्कृत शब्दों के प्रयोगों में स्वीकार्य लिगों का निर्दश होता थाल । एकलिंग, द्बिलिंग, त्निलिग शब्दों के विभाग के अतिरिक्त अर्थवतलिंग और नानालिंग के प्रकरण भी इनमें हुआ करते थे । ये कोश अनुमान के अनुसार गद्यात्मक थे ।

(४) नामतंत्नात्मक कोशों की भी दो विधाएँ होती थीं— एक समानार्थक शब्दसूचीकोश (जिसे आज पर्यायवाची कोश कहते है) और दूसरा अनेका या र्थनानार्थ कोश ।

(५) 'अमरसिंह' के कोशग्रंथ में 'नामतंत्र' और 'लिंगतंत्र' दोनों का समन्वय होने के बाद जहाँ एक और कांश उभयनिर्देशक होने लगे वहाँ कुछ कंश 'अमरकोश' के अनुकरण पर ऐसे भी बने जिनमें समानार्थक पर्योयों और अनेकार्थक शब्दों —दोनों विधाओं की अवतारण एकत्र की गई । फिर भी कुछ कोश (अभिधान चिंतामणि और कल्पद्रु आदि) केवल पर्यायवाची भी बने, ओर कुछ कोश— विश्वप्रकाश, मेदिनी, नानार्थार्णवसंक्षेप'— आदि नानार्थकोश ही है । 'वर्णादेशना' सदृश कोशों को छोड़कर संस्कृत कोश प्रायः पद्यात्मक हैं । इनमें मुख्य छंद अनुष्टुप् है । कभी कभी बहुछंदवाले कोश भी बने ।

(६) अमरकोश' की पद्धति पर कुछ कोशों में शब्दों का वर्गीकारण, स्वर्ग ,द्योः, दिक्, काल आदि विषयसंबद्ध पदार्थों के आधार पर काड़ों, वर्गों, अध्यायों आदि में हुआ और आगे चलकर कुछ में वर्णानुक्रम शब्दयोजना का भी आधार लिया गया । इनमें कभी सप्रमाण शब्दसंकलन भी हुआ ।

(७) अनेकार्थकोशों में विशेष रूप से वर्णाक्रमानुसारी शब्दसंकलन— पद्धति स्वीकृत हुई । उसमें भी अंत्यक्षर (अर्थात् अतिम स्वरांत व्यंजन) के आधार पर शब्दसंकलन का क्रम अपनाया गया और थोड़े बहुत कोशों में आदिवर्णानुसारी शब्द—क्रम—योजना भी अपनाई गई । अत्यवर्णानुसारी कोशों की उक्त योजना का आधार कहीं कहीं निर्दिष्ट वर्ग या उच्चारणास्थान होता था । इनमें कभी कभी अक्षर संख्यानुसार भी एकाक्षर ,द्वयक्षर, त्यक्षर आदि के क्रम से शब्दवर्गों का विभाजन भी किया गया है ।

(८) इन विशेषताओं के अतिरिक्त एकाक्षरकोशमाला और द्बिरूपकोश नामक शब्दकोशों की दो विधाओं का उल्लेख मिला है । एकार्थनाममाला, 'द्वयर्थनाममाला' आदि ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं तथापि कोशकार 'सौहरि' के नाम से निर्मित वे कोश कहे गए हैं । 'राक्षस' कवि का 'षड़र्थनिर्णयकोश' भी उल्लिखित है । 'षड्मुखकोश'- वृत्ति भी संभवतः ऐसा ही टीकाग्रंथ था । 'वर्णदेशाना' गद्यात्मक कोश है । वैकल्पिक रूपों का भी एकाध कोशों में निर्देश किया गया है ।

(९) कुछ कोशटीकाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि संस्कृतकोश के युग में बडे कोशों के संक्षेपीकरण द्बारा व्यवहारो- पयोगी लघु रूप के निर्माण की पद्धति भी प्रचलित थी । संस्कृत के वैयाकरणो में भी 'बृहत्' और 'लघु' संस्करणों के संपादन की प्रवृत्ति मिलती है जैसे— 'लघुशब्देंदुशेखर' 'बृहहतच्छब्देंदुशेखर' 'बालमनोरमा' 'प्रौढ़मनोरमा' तथा 'लघु —सिद्धांत —कौमुदी' । 'राजमुकुट' कृत अमरकोश टीका में 'बुहत्अमरकोश', सर्वदानंद द्बारा 'बृहानंद अमरकोश' और 'भानुदीक्षित' द्बारा 'बृहत् हारावली' के नाम् उल्लिखित है । ऐसा मालूम होता है कि इन्ही ग्रंथी के संक्षिप्त संस्करण के रूप में 'हारवली' और 'अमरकोश' आदि निर्मित हुए है ।

(१०) आनुपूर्वमूलक वैकल्पिक शब्दों के संकल भीन कहींे
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कहीं मिल जाते है । 'शब्दार्णवसंक्षेप' में पर्यायों की प्रवृत्तिमूलक सूक्ष्म अर्थच्छाया की भेदपरक व्याख्या भी मिलती है । 'कल्पद्रुकोश' में लिखित म० म० रामावतार शर्मा के कथन से यह भी पता लगता है कि अतिप्राचीन 'व्याडि' के कोश में कभी कभी अर्थनिर्देशन के लिये व्युत्पत्तिपरक सूचना भी दी जाती रही है ।

(११) पाली, प्राकृत और अपभ्रशं कोशों में कुछ नवीनता लक्षित नहीं होती । इतना अवश्य है कि पाली कोशों मे बौद्धमत के परिभाषिक शब्दों का काफी परिचय मिल जाता है और पाली के बहुत से शब्दों का अर्थज्ञान भी हो जाता है । 'पाली' का महाव्युत्पत्यात्मक कोश गद्यात्मक है ।

(१२) प्राकृत कोशों में अधिकतः देशी शब्दकोश, और देशी नामामालाएँ है । इनमें अव्युत्पन्न माने गए देशी शब्दों का संकलन हैं । कुछ में जैन प्राकृत ग्रंथों के संपर्क से जैन । मत के पारिभाषिक शब्दों का आंशिक परिचय मिल जाता है । 'पइअलच्छीनाममाला' नामक ग्रंथ में संभवतः सामान्य प्राकृत नामपदों का अत्यंत लघु शब्द संग्रह रहा होगा ।

(१३) अपभ्रंश के कोश संभवतः पृथक् उपलब्ध नहीं है । प्राकृत के देशी शब्दकोशों अथवा देशी नाममालाओं में ही उनका अंतर्भाव समझना चाहिए ।

मध्यकालीन हिंदी कोश

मध्यकाल में विरचित हिंदी कोशों का उल्लेख मिलता है और उनका स्वरूप सामने आता है । हिंदी ग्रंथों के खोजविवरणों मे पचासों कोश ग्रंथों के नामं मिलते हैं । इनके अतिरिक्त पोद्दार अभिनंदन गंथ में श्री जवाहरलाल चतुर्वेदी ने १४-१५ ऐसे कोशो के नाम दिए है जो खोजविवरणों में नही मिल पाए हैं । इससे ऐसा लगता है कि हिंदी साहित्य के मध्यकाल में और उसके बाद भी छोटे बड़े सैकड़ों कोश बने थे । उनमें अनेक संभवतः लुप्त हो गए । जिनके नाम ज्ञात हैं उनमें भी अनेक लुप्त या नष्ट होते जा रहे हैं । हिंदी ग्रंथो की खोज करनेवालों को जो कोश उपलब्ध हुए हैं उनमें कतिपय प्रसिद्ध कोशों का संक्षिप्त परिचय दिया जा सकता है ।

ऐसा जान पड़ता है, इनपर संस्कृत के कोशों से संकलित विषय और उनकी पद्धति का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है । अधिकांश कोशों ने मुख्य आधार के रूप में 'अमरकोश' का सहार लिया । उसकी उपजीव्यता का उन्होंने उल्लेख भी किया है । कभी कभी (जैसे उमराव कोश में) अमरकोश का नाम भी उल्लिखित है । पर कुछ केशकारों ने (यथा कर्णाभरण के लेखक हरिचरण दास) मेदिनी हेमकोश आदि से भी सहायता ली है ।

मध्याकालीन कोश— रचना—पद्धति को झलक अग्रोनिर्दिष्ट कुछ प्रसिद्ध कोशों के नाम देखने से मिल जाती है । 'नाममाला' और 'अनेकार्थमंजरी' 'नंददासं' के दो कोश मिलते हैं । पद्यनिर्मित इन कृतियों के नाममात्र से इनके स्वरूप का बोध हो जाता है । 'गरीबदास' का 'अनंगप्रबोध' १६१५ ई० की रचना कहीं जाती है । 'रत्नजीत' १३ ई०) के दो शब्द कोश (क) भाषशब्दसिंधु और (ख) भाषाधातुमाला —बताए गए हैं । इनके नाम भी स्वरूपपरिचायक है । 'मिर्जा खा' का 'तुहफत् उल— हिन्द (तुहफतुल हिद) 'खुसरो' की 'खालिकबारी'— अत्यंत प्रसिद्ध कोश है; एक 'डिंगल कोश' भी बहुत पहले बन चुका है । इनके अतिरिक्त भी अनेक कोश बने । 'नंददास' के नाम से 'नामचिंतामणि' नामक भी एक कोश कहा गया है । 'अमरकोश' के भी सभवतः अनेक पद्यानुवाद हुए है ।

इन ग्रथों के परिदर्शन से ज्ञात होता है कि जैसा ऊपर कहा जा चुका है, 'अमरकेश' के तथा कभी कभी अन्य कोशों के आधार पर हिंदी के मध्यकालीन पद्यात्मक कोश बने जो पर्जायवाची, समानार्थी या अनेकार्थक कोश थे । धातुसंग्रह का भी एक कोश— उपर्युक्त धातुमाला —अंतिम वर्णक्रमानुसारी संकलन है । मिर्जाखाँ का कोश अनेक दृष्टियों से नूतन पद्धतियों का निदर्शन उपस्थित करता है । अपने ढंग का यह प्रथम प्रयास कहा गया है । जियाउददीन और सुनीतकुमार चाटुर्ज्या ने इनकी बड़ी प्रसंशा की है । मध्यकालीन हिंदी भाषा के कोशों में शब्दों के क्रमसंयोजन में नूतन और भाष—वैज्ञानिक दृष्टि का इसमें परिचय दिया गया है; साथ ही साथ शब्दों की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है । इसके अतिरिक्त उच्चारण मे— लिखित रूप की अपेक्षा । बोलचाल के स्वरूप का अधिक ध्यान रखा गया है । 'गरीबदास' का कोश संत साहित्य के अनेक पारिभाषिक शब्दों का अर्धकोश है । हिंदी में 'खुसरो' का कोश भी यद्यपि विशाल नहीं है तथापि द्विभाषी कोश की प्राचीनरूपता के कारण महत्व रखता है । इसी तरह 'लल्लूलाल' का परवर्ती (१८३७ ई०) अंग्रेजी— हिंदी —फारसी केश भी उल्लेखनीय है । 'एकाक्षरी कोशी' ओषधिवरदनाममाला' आदि अनेक प्रकार के शब्द संग्रहात्मक कोशों का भी निर्माण हुआ है ।

हिंदी के मध्यकालीन कोशों में प्राचीन वर्गानुसारी विभाजन के आतिरिक्त केवल शीर्षकानुसारी विभाजन भी मिलता है , जैसे— 'अथ गो शब्द', 'अथ सदृश शब्द' इत्यादि । मुरारिदान के डिंगल कोश के अंतर्गत वर्गपद्धति के साथ साथ अन्य शीर्षक भी दिए गए हैं । उक्त कोश में शीर्षक के रूप हैं—(१) अथ वनस्पतिकायमाह, (२) दोहा, (३) वननाम इत्यादि । इसकी एक अन्य विशेषता भी है—इंद्रियों के अनुसार उपशीर्षक जैसे—'अथ द्बीद्रियानाह, त्नीद्रियानाह चतुरिंद्रियानाह पंचेद्रियानाह ।' पुनश्च 'जलचरान् पंचेंद्रियानाह' —इत्यादी । 'वायुकायमाह' कहकर वायु से संबद्ध नाना पदार्थों का संकलन है । कहीं कहीं पीड़ा 'पाताल' आदि उपशीर्षक के अंतर्गत भी उन शब्दों का संग्रह है जो अन्यत्न समाविष्ट नहीं किए जा सके । कहीं कहीं ऐसा भी है कि पर्यायों और जातिभेदों के लिये दूसरी पद्धति अपनाई गई है, जैसे, 'व्रिख' के अंतर्गत तो वृक्षों के पर्याय दिए गए है और 'सुरव्रिख' नाम के अंतर्गत वृक्षों के प्रकार गिनाए गए हैं— 'सुरतर गोरक' सिंसण, देवदार, अष्टसिद्धि, नवनिधि, सत्ताईस नक्षत्र, छत्तिस शस्त्रों आदि के नाम दिए गए है ।

हिंदी के मध्यकालीन कोशग्रथों में शब्दसंकलन का कार्य़ मुख्यतः संस्कृत के अन्य कुछ प्रसिद्ध कोशों के आधार पर हुआ है । इसके अतिरिक्त 'भिखारोदास' आदि के साहित्यिक भाषाग्रंथों से भी शब्द संकलित हुए है । 'खुसरो' और उनसे प्रभावित कोशों के समय से ही
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जनजीवन या बोलचाल के शब्दों की भी संगृहीत करने की चेष्टा मिलती है । संस्कृत कोशों की पद्धति भी— जिसके अनुसार 'घनसार- श्चंद्रसंवः' कहकर चंद्र की सभी संज्ञाओं कों कपूर का पर्याय भी सकेतित कर दिया गया है— 'उमराव' कोश आदि में मिलती है । परंतु 'अमरकोश' आदि के समान हिंदी कोशों में लिंगनिर्देश की व्यवस्था नहीं ही पाई । शिवसिंह कायस्थ के भाषा अमरकोश (अमरकोश की टीका) में स्पष्ट ही उसे बिना प्रयोजन समझकर छोड़ देने का निर्देश किया गया है । कभी कभी अवश्य एकाध कोश में यह कह दिया गया है कि दिर्घ रूप स्त्रीलिंग है और ह्रस्व पुल्लिंग । अव्ययों का समावेश भी प्रायः नहीं के बराबर उपलब्ध है यद्यपि अनेक कोशों में संस्कृत के परिनिष्ठित पदरूपों को तत्सम भावसे भी कभी कभी निर्दिष्टा किया गया है तथापि संस्कृत अव्ययों के सकलन में यह प्रक्रिया छोड़ दी गई है । जहाँ तक ध्वानियों में विकसित परिर्वतंन को निर्दिष्ट करने का प्रश्न है— 'तुहफतुलहिंद' आदि कोशों के छोड़कर अन्यत्न इसका अभाव है । 'भिखारीदास' ने अवश्य ही एक स्थल पर य, ज री, रि, श, ष, स, और ज्ञ आदि का समस्यात्मक उल्लेख मात्र कर दिया है । पर्याय शब्द और नानार्थ के विभिन्न अर्थों की गहना भी कुछ कोशकारों ने या तो अंत में पर्याय—सख्या—सूचना से अथवा प्रत्येक पर्याय के साथ अंक देकर की है ।

सक्षेप में कह सकतै हैं कि (१) —मध्यकालीन हिंदीकोश अधिकतः पद्य में ही बने जो संस्कृत कोशों से— मृख्यतः 'अमरकोश' से— या ती प्रभावित अथवा अनूदित हैं । अधिकतः ये पर्यायवाची कोश है । कुछ अनेकार्थक कोश भी हैं तथा दो एक 'एकाक्षरीकोश' भी मिल जाते हैं । कुछ 'निघंटु' ग्रंथ भी—जो वैद्यक से संबंधित थे,— संस्कृत से प्रभावित होकर बने । (२) —इन कोशों में नामसंग्रह अधिक है । कभी कभी धातुकोश भी मिल जाते हैं । (गूढार्थ कोश भी बना था ।) इसी कारण अधिकतः 'नाममाल', 'नाममंजरी', 'नामप्रकाश', 'नामचिंतामणि', आदि कोशपरक नामों का अधिक प्रयोग हुआ है । (३)— 'आतमबोध' या 'अनल्पप्रबोध' आदि में परिभाषिक—शब्दकोश— पद्धति भी मिलती है । (४) —शब्दक्रम में अधिकतः अंत्य वर्ण आधार बने हैं । शब्दविभाजन या तो वर्गानुसारी है या शीर्षकानुसारी । 'तुहफतुलहिद' में अवश्य ही वर्णवर्गों का विभाजनक्रम मिलता है । कुछ कोशों में उच्चारण और वर्णानुपूर्वी का सामान्य निर्देश भी दिखाई पडता है । (४) —डिंगल के कुछ कोशों में नामपदो के साथ क्रियाओं का संकलन भी दिखाई देता है । (६) —कभी कभी पर्यायगणना भी है और परिभाषाएँ भी ।

लिंगव्यवस्था आदि अनावम्यक समझे जानेवाले तत्वों का त्याग करने के अतिरिक्त कोश—विद्या—संबधी कोई ऐसी नवीन बात— जो कोश- विज्ञान के विकास में विशिष्ट महत्व रखती हो । —इन कोशों में आविर्भूत नहीं हुई । उच्चारण आदि के संबंध में कभी कभी कोशाकार की पैनी दृष्टि अवश्य आकृष्ट हुई । दूसरो और भाषा में प्रयुक्त होनेवाले और महत्वपूर्ण साहित्यकारों के विशिष्ट साहित्यग्रंथों में प्रयोगागत तदभव, देशी और विदेशी शब्दों के संकलन का प्रयास उतना नहीं हुआ जितना होना आवश्यक था ।

मध्यकालीन हिंदी कोशदार अपने सामने उपलब्ध संस्कृत कोशों के आधार पर हिदी कोश का कदाचित् निर्माण कर देना चाहते थे । इसका एक और भी अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संभावित कारण कहा जा सकता है । कोश का सर्वप्रमुख प्रोयोजन होता है वाड़मय के ग्रंथों का पाठकों के अर्थबोध करना । परंतु संस्कृत कोशों और तदाधारित हिंदी कोशों के निमर्तिओं की मुख्य दृष्टि थी ऐसे कोशों के संपादन पर जो विशेषतः कवियों ओर सामान्य़तः अन्य ग्रंथकारों के प्रयोगार्थ पर्यायवाची शब्दभांडार को सुलभ बना दें । निघंटुभाष्य अर्थात् निरुक्त में वेदार्थ- व्याख्या पर ही सर्वाधिक ध्यान दिया गाया है ।

संस्कृत साहित्य के रचनात्यक ग्रंथों के टीकाकारों ने अर्थ बोधन के लिये ही कोश वचनों के उद्धरण दिए हैं । फिर भी संस्कृत के अधिकांश कोशकारों की दृष्टि में कविता के निर्माण में सहायता पहुँचाना— पर्यायवाची कोशों का कदाचित् एक अति महत्वपूर्ण लक्ष्य़ था इसी प्रकार श्लेष, रूपक आदि अलंकारों में उपयुक्त शब्दोनियोजन के लिये शब्दों को सुलभ बनाना अनेक नानार्थ शब्द —संग्राहकों का मुख्य कोशकर्म था । हिंदी के कोशाकारी ने भी संभवत इस प्रेरणा को अपना प्रियतर उद्देश्य समझा । इसी कारण गतानुगतिक और संस्कृतागत शब्दकोश की निधि को अंसंस्कृत्ज्ञों के लिये सुलभ करने की इतिकर्तव्यता हिदी कोशों में भी हुई । थोड़े से कोशकारों ने आरंभ में पर्याय या अनेकार्थ शब्दो में नए शब्द जोड़े । पर उससे बहुत आगे ब़ढ़ने का स्वतंत्र प्रयास कम हुआ । फिर भी कुछ कोशकारों ने तदभव आदि शब्दों की थोड़ी बहुत वृद्धि करने का प्रायस किया । कुल मिलाकर कह सकतै है कि मध्यकालीन हिंदी शब्दकोशों में कोशाविद्या के किसी भी तत्व की प्रगति नहीं हो पाई । संस्कृत कोशों की प्रामाणिक प्रौढ़ता में उसी प्रकार कुछ ह्रास ही हुआ जैसे, रीतिकालीन साहित्यशास्त्र के हिंदी-लक्षण- ग्रंथों में संस्कृत के तदविषयक विशिष्टग्रंथों की पौढ़ता का । व्युत्पत्ति का पक्ष हिदी के मध्यकालीन कोशों में पूर्णतः परित्यक्त था । संस्कृत कोशों में भी यह पक्ष उपेक्षित ही रहा पर कोश के अनेक टीकाकारों ने व्युत्पत्ति पर ध्यान दिया । 'अमरकोश' की 'व्याख्यासुधा' या 'रा्माश्रयी' टीका (भानुजी दीक्षितकृत) में 'अमरकोश' के प्रत्येक नामपद की व्युत्पत्ति दी गई है । हिंदी के मध्यकालिन कोशों की न तो वैसी टीकाएँ लिखी गई और न तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति का अनुशीलन ही हुआ । अतः कोशविद्या के वैकासिक कौशल की दृष्टि में कोई प्रगति नहीं मिलती ।

संस्कृत के आधुनिक महाकोश

भारत में आधुनिक पद्धति पर बने संस्कृत कोशों की दो वर्गों में रखा जा सकता है । इनमें एक विधा वह थी जिसमें अंग्रेजी अथवा जर्मन आदि भाषाओँ के माध्यम से संस्कृत के कोश बने । इस पद्धति के प्रवर्तक अथवा आदि निर्माता पाश्चात्य विद्बान् थे । कोशविद्या की नूतन दृष्टि से संपन्न नवकोश की रचनाशैली के अनुसार से कोश बने । इनकी चर्चा आगे की जायगी । दूसरी और नवीन पद्धति के अनुसार नूतन प्रेरणाओं को लेकर संस्कृत में ऐसे कोश बने जिसका माध्यम भी
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सस्कृत ही था । इस प्रकार के कोशों में विशेष रूप से दो उल्लेखनीय हैः (१) 'शब्दकल्पद्रुम' और (२) 'वाचस्पत्य'।

प्रथम कोश— स्यार राजा 'राधाकांतदेव बाहादुर' द्वारा निर्मित "शब्दकल्पद्रुम" है । इसका प्रकाशन १८२८-१८५८ ई० में हुआ । इसमे पाणिनिव्याकरण के अनुसार प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति दो गई है, शब्दप्रयोग के उदाहरण उद्धृत हैं तथा शब्दोर्थसूचक कोश या इतर प्रामाणों के समर्थन द्बारा अर्थनिर्देश किया गया है । पर्याय भी दिए गए है । धातुओं से व्युत्पन्न क्रियापदों के उदाहरण भी दिए गए हैं । पदोदाहरण आदि भी हैं । कुछ थोड़े अतिप्रचलित वैदिक शब्दों के अतिरिक्त शेष नहीं हैं । शब्दों की विस्तृत व्याख्या में दर्शन, पुराण, वैद्यक धर्मशास्त्र आदि नाना प्रकारों के लंबे लंबे उद्धरण भी दिए गए है । तंत्र मंत्र, शास्त्र, स्त्रीत्न आदि से उद्धृत करते हुए अनेक संपूर्ण स्त्रोत्, तांत्रिक मंत्र आदि के भी विस्तृत अंश उद्धारित हैं । ज्योतिषशास्त्र और भारतीय विद्याओं के परिभाषिक शब्दों का भी तद्बिद्याविशेषज्ञों के सहयोग से सप्रमाण विवरण दिया गया है । इस कोश कार रचनापरिपाटी के विषय में भी विस्तृत वक्तव्य दिया गया है । उन कोशों की सूची भी दी गई है जो उपलब्ध थे और जिनस शब्दसंग्रह किया गया है । साथ ही विभिन्न कोशों में उल्लिखित पर अनुपलब्ध कोशों अथवा कोशकारों के नाम भी भूमिका में दिए गए हैं । लेखक स्वयमपि संस्कृत वैदुष्य के अतिरिक्त बँगला, हिंदी, अरबी, फारसी, अग्रेंजी आदि अनेक भाषाओं का अच्छा जानकार था ।

कहने का तात्पर्य यह है कि इस कोश में—जो सात खंड़ों में विरचित है— यथासंभव समस्त उपलब्ध संस्कृत साहित्य के वाड़मय का उपयोग किया गया है । इसके अतिरिक्त अंत में परिशिष्ट भी दिया गया है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है । इस प्रकार ऐतिहसिक दृष्टि से भारतीय—कोश—रचना के विकासक्रम में इसे विशिष्ट कोश कहा जा सकता है । यह पूर्णतः संस्कृत का एकभाषीय कोश है । परवर्ती संस्कृत कोशों पर ही नहीं, भारतीय भाषा के सभी कोशों पर इसका प्रभाव —व्यापक रूप से—पड़ता रहा है ।

यह कोश विशुद्ध शब्दकोश नहीं है, वरन् अनेक प्रकार के कोशों का— शब्दर्थकोश, प्रर्यायकोश, ज्ञानकोश और विश्वकोश का—संमिश्रित महाकोश है । इसमें बहुबिधाय उद्धरण, उदाहरण,प्रमाण, व्याख्या और विधाविधानों एवं पद्धतियों का परिचय दिया गया है । इसमें गृहीत शब्द 'पद' हैं, सुंवततिड़ःत प्रातिपदिक या धातु नहीं ।

सुखानंदनाथ ने भी चार जिल्दों में एक बृहदाकार संस्कृतकोश आगारा और उदयपुर से (ई० १८७३-८३ में) प्रकाशित किया जिसपर 'शब्दकल्पद्रुम' का पर्याप्त प्रभाव है ।

इस प्रकृति का दूसरा शब्दकोश 'वाचस्पत्यम्' है, जिसका निर्माण अनेक बर्षों में संपन्न हुआ । पूर्व कोश की अपेक्षा संस्कृत कोश का यह एक बृहत्तर संस्कारण है । इसके संकलयिता थे तर्कवाचस्पति तारानाथ भट्टाचार्य़ जो बंगाल के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापक थे ।

एच उड़रो ने अपनी 'वाचनिका' में इस कोश की विशेषता बताते हुए कहा कि "विल्सन" की 'संस्कृत डिक्शनरी' और 'शब्दकल्पद्रुम' की अपेक्षा इसका क्षेत्र विस्तृत और गंभीरतर है । साथ ही तंत्र, दर्शन शास्त्र छंदःशास्त्र और धर्मशास्त्र के ऐसे जाने कितने शब्द हैं जो 'राथ बोथालिंग्क' की संस्कृत —जर्मन—ड़िक्शनरी मो नहीं हैं । इसमें यह भी बताया गया है कि 'शब्दकल्पद्रुम' का प्रथम संस्करण बँगला लिपि में हुआ था । उस समय के उपलब्ध कोशों में अनुपलब्ध सैकड़ों हजारों शब्द इसमें संकलित हैं । सामान्य वैदिक शब्द तो है ही साथ ही ऐसे भी अनेक वैदिक शब्द है जो तत्कालीन शब्दकोशों में अप्राप्य हैं । षड़दर्शनों के अतिरिक्त चार्वाक, माध्यामिक, योगचार, वैभाषिक, सौत्रांत्रिक, अर्हत, रामानुज, माध्व ,पाशुपत्त शैव, प्रत्यभिज्ञा, रसेश्वर आदि अल्पलोकप्रिय दर्शनों के पारिभाषिक शब्दों का भी इसमें समावेश मिलता है । पुराणों और उपपुराणों से संगृहीत पुरातन राज ओं का इतिहास तथा प्रत्नयुगीन भारतीय भूगोल का भी इसमें निर्देश हुआ है । चिकित्साशास्त्र के पारिभाषिक शब्दों और अन्य विवरणों का भी विस्तृत निर्देश किया गया है । ज्योतिष —गणित, और फलित— के पारिभाषिक शब्द भी है । य़द्यपि वैदिक शब्दों कें संकलन संपादन को कोशाकार ने अपने इस कोश की विशेष महत्ता बताई है तथापि बहुत से वैदिक शब्द छूट भी गए है और बहुसंख्यक वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति और उनके अर्थ स्वकल्पित भी हैं । 'राथबोथलिंग्क' के बृहत्संस्कृत' शब्दकोश के उपयोग का भी काफी प्रयत्न किया गया हैं ।

संक्षेप में हम कह सकते है कि 'वाचस्पत्यम्' की रचना द्बारा पूर्वोंक्त 'शब्दकल्पद्रम' का एक ऐसा परिवर्धित और अपेक्षाकृत बृहात्तर संस्करण सामने आया जो कि रचनापद्धति की दृष्टि से अधिकांश बातों में 'शब्दकल्पद्रुम' के आयाम को व्यापक और पूर्ण बनाने की चेष्टा करता है । 'तर्कवाचस्पति' ने निश्चय ही जितना परिश्रम किया वह असामान्य है । उनके गंभीर ज्ञान, तलस्पर्शी मनीषा और व्यापक वैदुष्य का इसमें अदभुत उन्मेष दिखाई देता है । 'शब्दकल्पद्रुम' की आधआरपीठिका पाकर भी ग्रंथकार ने केशकला को 'शब्दकल्पद्रुम' की शैली में काफी व्यापक बनाया ।

'शब्दकल्पद्रुम' की अपेक्षा इसमें एक और विशेषता लक्षित होती है । 'शब्दकल्पद्रम' में 'पद' सुबंत तिङत दिए गए हैं । प्रथमा एकबचन के रूप को कोश में व्याख्येय शब्द का स्थान दिया गया है । पंरतु 'वाचस्पत्यम्' में दिए गय शब्द 'पद' न होकर 'प्रातिपदिक' अथवा 'धातुरूप' में उपन्यस्त हैं । वैसे सामान्य दृष्टि से—रचनाविधान की पद्धति के विचार से— 'वाचस्पत्यम्' की 'शब्दकल्पद्रुम' का विकसित रूप कहा जा सकता है । 'विल्सन' और 'मोनियर विलियम्य' के कोशों द्बारा अर्थबोध, शब्दर्थज्ञान एवं शब्दप्रयोग की सूचना तथा व्याख्या- परक परिचय संक्षिप्त है, पर उपयोगी रूप में कराया गया है । परंतु 'शब्दकल्पद्रुम' और 'वाचस्पत्यम्' द्वारा उद्धरणों की विस्तृत पृष्ठभूमि के संपर्क में उभरे हुए अर्थचित्र यद्यपि संश्लिष्टबोध देने में सहायक होते है तथ पि उद्धरणों के माध्यम से संबद्धज्ञान का आकार विश्वकोशीय
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हो गया है । उपयोंगितासपन्न होकर भी सामान्य संस्कृतज्ञों के लिये— यह व्यावाहारिक सौविध्य से रहित हो गया है ।

संस्कृत के माध्यम से छोटे बडे़ अनेक संस्कृतकोश बने । परंतु कोश- विकास के इतिहास में उनका महत्व नहीं माना जा सकता । संस्कृत के अनेक कोश ऐसे भी बने जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से संस्कृत शब्दों का अर्थपरिचय देते हैं । परंतु उनमें कोई अपनी स्वतंत्र विशेषता नहीं दिखाई देती । 'बिल्सन' अथवा 'विलयम्स', 'मेकडोनाल्ड', 'आप्टे' के कांशों या तो इन्होंने आधार लिया अथवा थोडी़ बहुत सहायता 'शब्दकल्पद्रूम' 'वाचस्पत्यम्' से ली । मराठी-संस्कृत-कोश संस्कृत-तामिल-कोश, संस्कृत-तेलगू-कोश, संस्कृत-बँगला-कोश, संस्कृत-गुजराती-कोश, संस्कृत-हिंदी-कोश आदि भारतीय आधुनिक भाषाओं के तत्तत् नामवाले—सैकडों की संख्या में कोश बने हैं और आज ये कोश उपलब्ध भी हैं । यहाँ पर ध्यान रखने की एक और बात यह है की संस्कृत के उक्त दोनों महाकोश बंगाल की भूमी में ही बने ।

बँगला विश्वकोश भी संभवत: उसी परंपरा से प्रभावित— 'शब्दकल्पद्रुभ' और 'वाचस्पत्यम्' का ही एक रूप है । इसमें यद्यपि आधुनिक विश्वकोश की रचनापद्धति को अपनाने की चेष्टा हुई है तथापि वह भी मिश्रित शैली का ही विश्वकोश है । उसका एक हिंदी संस्करण भी हिंदी विश्वकोश के नाम से प्रकाशित किया गया है । बंगला विश्वकोश का पूरा पूरा आधार लेकर चलने पर भी हिंदी का यह प्रथम विश्वकोश नए सिरे से तैयार किया गया ।

शब्दकोश और विश्वकोश के मिश्रित रूप की यह पद्धति केवल संस्कृत और बंगला के कोशों में ही नहीं अपितु भारतीय भाषा के अन्य कोशों में भी लक्षित होती है । अंग्रेजी आदि भाषा के अनेक बडे कोशों मे यह सरणि है—विशेषत: प्राचीन संस्करणों में । पूर्णचंद्र का उडिया कोश भी इसी पद्धति का एक ग्रंथ है । 'हिंदी शब्दसागर' भी अपने प्रथम संस्करण में आंशिक रूप से इसी पद्धती पर चला । द्वितीय संशोधित और परिवर्धित संस्करण में भी उसके पूर्वरुप को सुरक्षित रखने की चेष्टा हुई है । परंतु लंबे लंबे पौराणिक, शास्त्रिय अथवा दार्शनिक उद्धरणों का भार इसमें न आने देने की चेष्टा हुई है । संबंद्ध वस्तु अथवा पदार्थज्ञान के लिये उपयोगी विवरण को यथासंभव देने की चेष्टा की गई है ।

आधुनिक कोशविद्या: पश्चिम में

आधुनिक कोशरूप का उद्भभव और विकास

पश्चिम विद्वानों के संपर्क से भारत में जिस कोश-रवना-पद्धति का १८वीं शत्ती में विकास हुआ, पश्चिम में पहले से ही वह प्रचलित हो चुकी थी । अत: योरप की कोश-रचना-पद्धति के विकास का ऐतिहासिक सिंहावलोकन यहाँ देना अनुचित न होगा ।

ग्लाँस—रोमन धर्म औऱ साम्राज्य की धार्मिक एवं राजनीतिक महत्ता के कारण समस्त पश्चिंमी योरप में लातिन ( लैटिन) सर्वप्रमुख भाषा बन गई थी । उस भाषा के ग्रंथों का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण मान लिया गया था । वह भाषा समस्त विद्या और ज्ञान की प्राप्ति का एक प्रकार से प्रवेशद्वार समझी जाने लगी थी । पाश्चात्य कोशविद्या का अंकुरण भी इन्हीं लातिन—शब्द—सूचिय़ों से हुआ था, जिन्हें ग्लोसेज कहते थे । 'ग्लासरी' शब्द भी इसी मूल से व्युपन्न है । ग्लोसेज का अर्थ होता था शब्दसूचियाँ । 'लातिन' ग्रंथों के पढ़ने- वाले—ग्रंथो के हाशिए पर उनके दुबोंध्य और कठिन शब्दों को लिख दिया करते थे । अपनी स्मृति द्वारा अथवा अन्य विज्ञों की सहायता से—कभी सरल 'लतिन' में और कबी तदितर स्वभाषा में—इन शब्दों का अर्थ भी हलके अक्षरों में लिख लेते थे । इसी शब्द को 'ग्लास' कहते हैं ।

'रोमानिक' भूमिवासियों के लिये प्राचीन रोमन भाषा ( लातिन ) बहुत कठिन नहीं थी । पर दूरस्थों के लिये वह भाषा दुर्बोध्य थी । अत: 'केल्टिक' और 'टयूटानिक' प्रदेशों के दूरस्थों की दृष्टि में उपर्युक्त 'ग्लास पद्धति' अधिक उपयोगी हुई । व्यापक रूप से और अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत आयाम में इस प्रकार की शब्दसूचियाँ बनीं । इनके माध्यम से सैक्सन, इंग्लिश, 'आयरिश' 'प्राचिन जर्मन' ( गाथिक ) = आदि भाषाओं के ऐसे प्राचिन शब्दरूप बहुत बडी़ मात्रा में सुरक्षित रह गए हैं जिनमें तत्तदाषाओं के बहुत से शब्द आज अन्यत्र दूर्लभ है ।

कहा जाता है कि इंग्लैंड में उत्पन्न 'जोन्स दी गालैंडिया' ने लातिन के एक डिक्शनेरियस का निर्माण—१२२४ ईं० में किया था । लतिन

क—शब्दकोशों के आरंभिक अस्तित्व की चर्चा में अनेक देशों और जातियों के नाम जुडे़ हुए हैं । भारत में पुरातनतम उपलब्ध शब्दकोश वैदिक 'निघुंट' है । उसका रचनाकाल कम से कम ७०० या ८०० ई० पू० है । उसके पूर्व भी 'निघंटु' की परंपरा थी । अत: कम से कम ई० पू० १००० से ही निघंटु कोशों का संपादन होने लगा था । कहा जाता है कि 'चीन' में ईसवी सन् के हजारों वर्ष पहले से ही कोश बनने लगे थे । पर इसी श्रुतिपरंपरा का प्रमाण बहुत बाद— आगे चलकर उस प्रथम चीनी कोश में मिलता है, जिसका रचना 'शुओ वेन' ( एस-एच-यू-ओ-डब्ल्यू-ई-एन ) ने पहली दूसरी शत्री ई० के आसपास की थी ( १२१ ई० भी इसका निर्माण काल कहा गया है )। चीन के 'हान' राजाओं के राज्य- काल में भाषाशास्त्री 'शुओ बेन' के कोश को उपलब्ध कहा गया है । यूरेशिया भूखंड में एक प्राचीनतम 'अक्कादी—सुमेरी' शब्दकोश का नाम लिया जाता है जिसके प्रथम रूप का निर्माण— अनुमान और कल्पना के अनुसार—ई० पू० ७वीं शती में बताया जाता है । कहा जाता है कि हेलेनिस्टिक युग के यूनानियों नें भी योरप में सर्वप्रथम कोशरचना उसी प्रकार आरंभ की थी जिस प्रकार साहित्य, दर्शन, व्याकरण, राजनीति आदि के वाडमय की । यूनानियों का महत्व समाप्त होने के बाद और रोमन साम्राज्य के वैभवकाल में तथा मध्यकाल में भी बहुत से 'लातिन' को कोश बने । 'लतिन' का उत्कर्ष और विस्तार होने पर लतिन तथा लातिन + अन्यभाषा-कोश, शनै: शनै: बनते चले गए । 'लातिन' ग्लास- कोशों की चर्चा में इसकी कुछ वर्णन किया गया है । सातवीं-आठवीं शती ई० में निर्मित एक विशाल 'अरबी शब्दकोश' का उल्लेख भी उपलब्ध है ।
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शब्दों का यह लघु संग्रहकोश था । विषयवर्गानुसार वाक्यों में प्रयोग निदर्शन के रूप में भाषा के आरंभिक सीखनेवालों की उपयोगिता के निमित्त इसका निर्माण किया गया था । 'डिक्शनरी' शब्द का भी कदाचित् सर्वप्रथम प्रयोग इसी शब्दसूची में हुआ था । १४वीं शती के उत्तरार्ध में भी ऐसे कुछ कोश बने ।

कालांतर में अलग पत्नों पर उक्त शब्दों—अर्थों की प्रतिलिपियाँ की जाने लगीं । उन्हें एकत्र भी किया जाने लगा । 'लातिन' भाषा के क्लिष्ट शब्दों का अर्थबोध कराने के लिये शब्दार्थसंग्रह का यह कार्य अत्यंत उपयोगी हो गया है । तत्तत् सूचियों में समाविष्ट शब्दों को आगे चलकर ग्लासेरियम कहने लगे, जिसका अर्थ है शब्दर्थसूची । १६वीं १७वीं— में इन्हीं 'ग्लासेरियम' के आधार पर वर्णक्रमानुसारी शब्दसारिणियाँ ( टेबुल्स अल्फाबेटिकल ) और क्लिष्ट—शब्दार्थ—बोधक संग्रहों का निर्माण हुआ ।

अकारादिक्रम—१५वीं शती से भी दो तीन सौ वर्ष पूर्व योरप की विभिन्न भाषाओं में अनेक प्रकार के विभिन्न वर्गों के शब्दों की सूचियाँ संगृहीत होने लगी थी ।

इन शब्दसूचियों में शब्दसंकलन वर्गीकृत होता था । जिस प्रकार संस्कृत के अमरकोश आदि ग्रंथों में अपनी दृष्टि से पर्यायवाची शब्दों का वर्गाश्रित संग्रह मिलता है उसी प्रकार इन शब्दसूचियों में शरीर के अंगों पारिवारिक संबंधों, मनुष्य के पदों और श्रणियों, घरेलू एवं पालित जानवरों, जंगली पशुओं, मछलियों, वृक्षों, व्यवसायों, वस्त्राभूषणों, अस्त्रशस्त्रों, चर्च की सामग्रीयों, रोग आदि के नामों की अर्थ- सहित सूचियाँ संगृहीत होती थी ।

इन्हें 'वोकैब्युलेरियम्' कहा जाता था । अंग्रेजी का 'वोकैब्युलेरी' शब्द भी इसी से निर्गत है । कागज के अतिरिक्त चमडों पर भी इनका संग्रह होता था । मूलत भिन्न दृष्टि से संकलित होने पर भी 'ग्लाँस' और 'वोकैब्युलेरि' दोनों का व्यावहारिक उपयोग भाषाज्ञान में सहाय़ता देनेवाले उपकरण के रूप में होने लगा था । अत: इन दोनों प्रकार की शब्दर्थसूचियों का प्राय" एकत्र संयोजन कर दिया जाने लगा ।

स्वज्ञान से अथवा दूसरों की 'ग्लाँसरी' और 'वोकैब्युलेरि' से नए शब्दों को लेकर शब्दसूचियों के स्वामी उनमें नए शब्द जोड़ते रहते थे । इनकी प्रतिलिपि करके अन्य व्यक्ति भी समय समय पर इनका संग्रह प्राप्त कर सकता था । प्रतिलिपि परंपरा द्वारा इनका प्रसार और विस्तार होता चल रहा था ।

सर टामस् ईलियट ( १५३८ ई० ) का निर्मित शब्दकोश डिक्शनेरियम विशेष महत्व भी रखता है और नूतनपथ की भी प्रदर्शक है । जे० डब्ल्यू० विदाल्स् द्वारा अंग्रेजी के आरंभिक लातिन पाठकों की सुविधा के लिये रचित 'अंग्रेजी—लातिन' का लघुशब्दकोश भी विषयानुसारी वर्गों में ही ग्रंथित है । परंतु 'अंग्रेजी में लातिन' का कोश होने के कारण विशेष महत्व रखता है ।

इससे भी अधिक महत्व का एक बहुभाषी लातिन शब्दकोश— १३३९ई० में ओर ऐस्टीम ने बनाया था जिसमें लातिन शब्दों के समानार्थक अंग्रेजी शब्दों के अलावा यूरोप की अनेक नव्यभाषाओं के भी पर्याय दिए गए थे । १५४७ ई० के बाद अंग्रेजी और नव्ययूरोपीय भाषा के भी कोश बनने लगे ।

प्रतिलिपीकरण के माध्यम से प्रसारित इन सूचियों में शब्दों ओर वाक्यांशों को उपयोगिता की दृष्टे से अकारादि क्रमानुसार व्यवस्थित करना अधिक लाभकार जान पडा़ । यहीं से इनमें अकारादि क्रमानुसारी संग्रहपद्धति का आरंभ होता है । शब्द या वाक्यांश के आरंभिक प्रथमाक्षर को क्रमबद्ध सूची में लिपिक संगृहीत कर देता था । उसमें द्वितियाक्षर अथवा आनुपूर्वी नहीं देखी जाती थी । अत: इस पद्धति को वर्णमालानुसारी प्रथमाक्षर क्रम कह सकते हैं । यह अवस्था सहस्रों शब्दोंवाली सूची में अनुभूत कठिनाई को दूर कर, सुविधाजनक पद्धति को ढूँढ निकालने के सायास व्यवस्था द्वारा प्रचलित हुई । फलत: धीरे—धीरे उसमें विकास होता गया और प्रथमाक्षर के साथ साथ द्वितौय, तृतीय अक्षरों पर भी ध्यान दिया जाने लगा । फिर धीरे धीरे वर्णानुपूर्वी के अनुसार आधुनिक युग में प्रचलित पद्धति से शब्दार्थसंग्रह होने लगा ।

अंग्रजी कोश का उद्भव

'लातिन' की इन शब्दसूचियों ने आधुनिक कोश—रचना—पद्धति का जिस प्रकार विकास किया, अंग्रेज कोशों के विकास क्रम में उसे देखा जा सकता है । आरंभ में इन शब्दार्थसूचियों का प्रधान विधान था क्लिष्ट 'लातिन' शब्दों का सरल 'लातिन' भाषा में अर्थ सूचित करना । धीरे धीरे सुविधा के लिये रोमन भूमि से दूरस्थ पाठक अपनी भाषा में भी उन शब्दों का अर्थ लिख देते थे । 'ग्लाँसरी', और 'वोकैब्युलेरि' के अंग्रेजी भाषी विद्वानों की प्रवृत्ति में भी यह नई भावना जगी । इस नवचेतना के परिणामस्वरूप 'लातिन' शब्दों का अंग्रेजी में अर्थनिर्देश करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी । इस क्रम में 'लैटिन अंगेजी' कोश का आरंभिक रूप सामने आया ।

दसवीं शताब्दी में ही 'आक्सफोर्ड' के निकटवर्ती स्थान के एक विद्वान धर्मपीठाधीश 'एफ्रिक' ने 'लैटिन' व्याकरण का एक ग्रंथ बनाया था । और उसी के साथ वर्गीकृत 'लातिन' शब्दों का एक 'लैटिन—इंग्लिश', लघुकोश भी जोड दिया था । संभवत: उक्त ढंग के कोशों में यह प्रथम था । १०६६ ई० से लेकर १४०० ई० के बीच की कोशोत्मक शब्दसूचियों को एकत्र करते हुए 'राइट ब्यूलर' ने ऐसी दो शब्दसूचिय़ाँ उपस्थित की है । इनमें भी एक १२ वीं शताब्दी की है । वह पूर्ववर्ती शब्दसूचियों की प्रतिलिपि मात्र हैं । दूसरी शब्दसूची में 'लातिन' तथा अन्य भाषाओं के शब्द हैं ।

इंग्लैड में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना के उद्बुद्ध होने पर अंग्रेजी राजभाषा हुई । शिक्षा—संस्थाओं में फ्रांसीसी के स्थान पर अंग्रेजी का पठन पाठन बढा । अंग्रेजी में लेखकों की संख्या भी अधिक होने लगी । फलत: अंग्रेजी के शब्दकोश की आवश्यकता भी बढ गई । १५वीं शती में 'राइट व्यूलर' ने छह महत्वपूर्ण पुरानी शब्दार्थसूचियों को मुद्रित किया । अधिकत: विषयगत वर्गों के आधार पर वे बनाई गई थीं । केवल एक शब्दसूची ऐसी थी जिसमें अकारादिक्रम से २५००० शब्दों का संकलन किया गया था ।
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ऐम० ऐम० मैथ्यू ने अंग्रजी कोशों का सर्वेक्षण ना मक अपनी रचना में १५वी० शती के दो महत्वपूर्ण ग्रंथों का उल्लेख किया़ है । प्रथम 'ओरट्स' का 'वोकाब्युलरियम्' था जो पूर्व 'मेड्डला' व्याकरण पर आधारित था । दूसरा था 'ग्लाफेड्स' या 'ज्याफरी' व्याकरण पर आधारित इंग्लिश—लैटिन कोश । इसका पिंसिन द्वारा १४४० ई० में प्रथम मुद्रित संस्करण प्रकाशित किया गया । उसका नाम था प्रोंपटोरियम परव्यूलोरमं सिनक्लोरिकोरम् ( अर्थात् बच्चों का भांडार या संग्रहालय ) । इसका मबत्व— ९—१० हजार शब्दों के संग्रह के कारण न होकर इसलिये था इसके द्वारा शब्दसूचि के रचनाविद्यान में नए प्रयोग का संकेत दिखाई पडा़ । इसमें संज्ञा और क्रिया के मुख्यांश से व्यतिरिक्त अन्य प्रकार के शब्द ( अन्य पार्टस् आँव स्पीच ) भी संकलित है । यह 'मेड्डला ग्रामाटिसिज' कदाचित् प्रथम 'लातीन—अंग्रेजी' शब्दकोश था । लोकप्रियता का प्रमाण मिलता है— उसकी बहुत सी उपलब्ध प्रतिलिपियो के कारण । १४८३ ईं में 'वेथोलिअम ऐंग्लिवन् ' नामक शब्दकोश संकलित हुआ था । परंतु महत्वपूर्ण कोश होकर भी पूर्वाक्त कोश के समान वह लोकप्रिय न हो सका ।

इसके पश्चात् १६वी शताब्दी में 'लैटिन अँग्रँजी' और 'अंग्रेजी लैटिन' की अनेक शब्दसूचियाँ निर्मित एवं प्रकाशित हुई । 'सर टामस ईलियट' की डिक्शनरी ऐसा सर्वप्रथम ग्रंथ है जिसमें 'डिक्शनरी' अभिधान का अंग्रेजी में प्रयोग मिलता है । मूल शब्द लातिन का 'डिक्शनरियम्' है जिसका अर्थ था कथन ( सेइंग ) । पर वैयाकरणों द्वारा 'कोश' शब्द के अर्थ में उसका प्रयोग होने लगा था। इससे पूर्व—आरं- भिक शब्दसूचियों और कोशों के लिये अनेक नाम प्रचलित थे, यथा— 'नामिनल', 'नेमबुक', मेडुला ग्रामेटिक्स, 'दी आर्टस् वोकाब्युलेरियम्' गार्डन आफ़ वडंस, दि प्रोम्पटारियम पोरवोरम, कैथोलिकम् ऐग्लिकन्, मैनुअलस् वोकैब्युरम्, हैंडफुल आव वोकैब्युलरियस्, 'दि एबेसेडेरियम्, बिबलोथिका, एल्बारिया, लाइब्रेरी, दी टेबुल अल्फाबेटिकल, दी ट्रेजरी या ट्रेजरर्स आफ वर्डस् 'दि इंग्लिश एक्सपोजिटर', दि गाइड टु दि टंग्स्, दि ग्लासोग्राफिया, दि न्यू वल्डर्स , आव वर्डस् 'दि इटिमालाँजिकम्' दि फाइलाँलाँजिकम्' आदि । इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार १२२४ ईं में कंठस्थ की जानेवाली 'लातिन' शब्दसूची के हस्तलेख के लिये जान गारलैंडिया ने इस ( डिक्शनरी ) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया गया था । परंतु लगभग तीन शताब्दी बाद सर टामस् ईलियट द्वारा प्रयुक्त यह शब्द क्यों और कैसे लोकप्रिय हो उठा यह कहना सरल नहीं है ।

१६वीं शती में पूर्वार्ध के व्यतीत होते होते यह विचार स्विकृत होने लगा कि शब्दकोश में शब्दार्थ देखने की पद्धति सुविधापूर्ण और सरल होनी चाहिए । इस दृष्टि से कोश के लिये वर्णमाला क्रम से शब्दानुक्रम की व्यवस्था उपयुक्ततर मानी गई । पश्चिम की इस पद्धति को महत्वपूर्ण उपलब्धि और कोशविद्या के नूतन विकास की नई मोड़ माना जा सकता है। एकाक्षर और विश्लेषणात्मक पदरचना वाली चीनी भाषा में एकाक्षर शब्द ही होते हैं । प्रत्येक 'सिलेबुल' स्वतंत्र, सार्थक ज्ञौर विश्लिष्ट होता है । वहाँ के पुराने कोश अर्थानुसार तथा उच्चारण- मूलक पद्धति पर बने हैं । वैसी भाषा के कोशों में उच्चारणानुसारी शब्दों का ढूँढना अत्यंत दुष्कर होता था । परंतु योरप की भाषाओं में अकारादि क्रमानुसारी एक नई दिशा की ओर शब्दकोशरचना का संकेत हुआ । पूर्वोक्त प्रोम्पटोरियम के अनंतर १५१९ में प्रकाशित विलियम हार्नन का शब्दकोश अंग्रेजी लैटिन कोशों में उल्लेख्य है । इसमें कहावतों और सूक्तियों का प्राचीन पद्धति पर संग्रह था । मुद्रित कोशों में इसका अपना स्थान था । १५७३ ई० में रिचार्ड हाउलेट का 'एबेसेडेरियम' और 'जाँन वारेट का लाइब्रेरिया—दो कोश प्रकाशित हुए । प्रथम में लैटिन पर्याय के साथ साथ अंग्रैजी में अर्थ कथन होने से अंग्रेजी कोशों में—विशेषत: प्राचीन काल के—इसे उत्तम और अपने ढंग का महत्वशाली कोश माना गया है । इससे भी पूर्व— ई० १५७० में 'पीटर लेविस' ने एक 'इंगलिश राइमिंग डिक्शनरी' बनाई थी जिसमें अंग्रेजी शब्दों के साथ लैटिन शब्द भी हैं और सभी खास शब्द तुकांत रूप में रखे गए थे ।

हेनरी अष्टम की बहन, मेरी ट्युडर, जब फ्रांस के १२वें लुई की पत्नी बनी तब उन्हें फ्रांसीसी भाषा पढा़ने के लिये जान पाल ग्रे ने एक ग्रंथ बनाया जिसमें फ्रांसीसी के साथ साथ अंग्रेजी शब्द भी थे । १४३० ई० में यह प्रकाशित हुआ । इस कोश को आधुनिक फ्रांसीसी और आधुनिक अंग्रेजी भाषाओं का प्राचीनतम कोश कहा जा सकता है । गाइल्स दु गेज़ ने लेडी मेरी को फ्रांसीसी पढा़ने के लिये १५२७ में व्याकरणरचना की जो पुस्तक प्रकाशित की थी उसमें भी चुने हुए अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्दों का संग्रह जोड़ दिया गया था ।

रिचर्ड हाउलेट का एबेसेडिरियम १५५२ ई० में प्रकाशित हुआ; जिसे सर्वप्रथम अंग्रेजी ( + लैटिन) 'डिक्शनरी' कह सकते हैं । जान वारेट का कोश ( एल्बरिया) भी १५७३ ई० में प्रकाशित हुआ । रिचार्ड के कोश में अंग्रेजी भाषा द्वारा अर्थव्याख्या की गई है ।अत: उसे प्रथम अंग्रेजी कोश— लैटिन अंग्रेजी डिक्शनरी कह सकते हैं । १६वीं शताब्दी में ही ( १५९९ ई० में ) रिचार्डस परसिवाल ने स्पेनिश अंग्रेजी—कोश मुद्रित कराया था । पलोरियो ने भी दि वर्ल्ड्स आव दि वर्डस् नाम से एक इताली—अग्रेजी—कोश बनाकर मुद्रित किया । उसका परिवर्धित संस्करण १६११ ई० में प्रकाशित हुआ । इसी वर्ष रैंडल काटग्रेव का प्रसिद्ध फ्रेंच—अंग्रेजी—कोश भी प्रकाशित हुआ जिसके अति लोकप्रिय हो जाने के कारण बाद में अनेक संस्करण छपे । केवल अंग्रेजीकोश के अभाववश 'पलोरियो' और 'काटग्रेव' के अंग्रेजी शब्दसंग्रही का अत्यंत महत्व माना गया और 'शेक्सपियर' के युग की भाषा समझने—समझाने में वह बडा़ उपयोगी सिद्ध हुआ ।

इसी के आस—पास 'बाइबिल' का अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाश में आया । १७वी० शताब्दी के प्रथम चरण ( १६१० ई० में ) में जाँन मिनश्यू ने 'दि गाइड इंटु इग्स ' नामक एक नानाभाषी कोश का निर्माण किया जिसमें अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य दस भाषाओं का ( वेल्स लो डच्, हाई डच्, फ्रांसीसी, इताली, पूर्तगाली, स्पेनी लातिन, यूनानी और हिंब्रु शब्द दिए गए थे) ।
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इन कोशों में अंग्रेजी कोश के लिये आवश्यक और उपयोगी सामग्री के रहने पर भी केवल अंग्रेजी के एकभाषी कोश की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। प्राचीन अध्ययन के प्रति पुनर्जागर्ति के कारण अंग्रेजी में लातिन, यूनानी, हिब्रू, अरबी आदि के सहस्रों शब्द और प्रयोग प्रचारित होने लगे थे । ये प्रयोग 'इंक हार्डस टमँस्' कहे जाते थे । वे परंपरया आगत नहीं थे । इन क्लिष्ट शब्दों की वर्तनी और कभी कभी अर्थ बतानेवाले ग्रंथों की तत्कालीन अनिवार्य आवश्यकता उठ खडी हुई थी । मुख्यतः इसी की पूर्ति के लिये— न कि अपनी भाषा के शब्दों और मुहावरों का परिचय कराने की भावना से— आरभिक अंग्रेजी- कोशों के निर्माण की कदाचित् मुख्य प्रेरणा मिली । सर्वप्रथम 'टेबुल अल्फावेटिकल आव हार्ड वर्डस' शीर्षक एक लघु पुस्तक राबर्ट काउड ने प्रकाशित की जो १२० पृष्ठों में रचित थी । इसमें तीन हजार शब्दों की शुद्ध वतंनी और अर्थों का निर्देश किया गया था । यह इतना लोकप्रिय हुआ कि आठ वर्षों में इसके तीन संस्करण प्रकाशित करने पडे़ । १६१६ ई० में 'ऐन इंगलिश एक्सपोजिटर' नामक — जान बुलाकर का — कोश प्रकाशित हुआ जिनके न जाने कितने संस्करण मुद्रित किए गए । १६२३ ई० में 'एच० सी० जेट' द्वारा रचित 'इंगलिश डिक्शनरी' के नाम से एक कोशग्रथ प्रकाशित हुआ जिसकी रचना से प्रसन्न होकर प्रशंसा में 'जाँन फो़ड' ने प्रमाणपत्र भेजा था । तीन भागों में विभक्त इस कोश की निर्माणपद्धति कुछ विचित्र सी लगती है । इसकी विभाजनपद्धति को देखकर 'यास्क' के निरुक्त में निर्दिष्ट नैगमकांड, नैघंटुककांड और दैबतकाडों में लक्षित वर्गानुसारी पद्धति की स्मृति हो आती है । प्रथम अंश से क्लिष्ट शब्द सामान्य भाषा में अर्थों के साथ दिए गए हैं । द्वितीय अंश में सामान्य शब्दों के अर्थों का क्लिष्ट पर्यायों द्वारा निर्देश हुआ है । देवी देवताओं, नरनारियो, लड़के लडकियों, दैत्वों—राक्षमों, पशु पक्षियों आदि की व्याख्या द्वारा तीसरे भाग के इस अंश में वर्णन किया गया । इसमें शास्त्रीय, ऐतिहासिक, पौराणिक तथा अलौकिक शक्तिसंपन्न व्यक्तियों आदि से संबद्ध कल्पनाआ का भी अच्छा सकलन है । २० साल परिश्रम करके 'ग्लासोग्राफया' नामक एक ऐसे कोश का 'टामस क्लाउंडर ने संग्रह किया था जिसमें यूनानी, लातिन, हिब्रू आदि के उन शब्दों की व्याख्या मिलती है जिनका प्रयोग उस समय की परिनिष्ठित अंग्रजी मे होने लगा था । एस० सी० काकरमैन का कोश भी बडा़ लोकप्रिय था और उसके जाने कितने संस्करण हुए । प्रसिद्ध कवि मिल्टन के भतीजे एडवर्ड फिलिप्स ने १५४५ ई० में दि न्यू वर्ल्ड आव इंगलिश बर्डस, या 'ए जेनरल डिकश्नरी' नामक लोकप्रिय कोश का निर्माण किया था ।

१६६० तक के प्रकाशित कोशों की निर्माण संबंधी आवश्यकताओं में कदाचित् तात्कालिक प्रयोजन का सर्वाधिक महत्व था विशिष्ट महिलाओं यो अध्ययनशील विदुषियों को सहायता देना । बाद में चलकर कोशनिर्माण का इस प्ररणा का निर्देश नहीं मिलता । १७०२ ई० से १७०७ तेक 'लासोग्राफिया' के अनेक संस्करण छपे । एडवर्ड फिलाप्स का काश भी बाद क संस्करणों में अधिक महत्वपूर्ण हो गया । एशिसाकोत्स और एडवर्ड पार्कर के कोश भी इसी समय के आसपास छपे जिनका पुनर्मुद्रण बीसवीं शती तक भी होता रहा । जाँन करेन्सी ने भी 'डिक्शनेरियम एंग्लोब्रिटेनिकन' या 'जनरल इंग्लिश डिक्शनरी' निर्मित की जिसमें पुराने (प्रयोगलुप्त) शब्दों की पर्याप्त संख्या थी ।

नैथन बेली— सौ वर्षों तक अंग्रेजी की कोशरचना का यही क्रम चलता रहा जिनके शब्दसंकलन में विशिष्ट शब्दों की ही मुख्यता बनी रही । भाषा में प्रयुक्त समस्त— सामान्य और विशिष्ट— शब्दों का कोश बनाने में विद्वान् प्रवृत्त नहीं हुए थे । 'नैथन वेली' ने सर्वप्रथम ऐसे कोशके निर्माण की योजना बनाई जिसमें अंग्रेजी के समस्त शब्दों के समावेश का प्रयास किया गया । इसका नाम था 'युनिवर्सल इटिमाँलाजिकल इंगिलिश डिक्शनरी' । इसमें अनेक विशेषताएँ थी । संकलित शब्दों के विकासक्रम का संकेत दिया गया था । साथ ही इसमें व्युत्पत्ति देने की भी चेष्टा की गई । १७२९ में इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ । १७३९ में प्रकाशित दूसरे संस्करण में शब्दों के उच्चारणबोधक संकेत भी इ समें दिए गए । अंग्रेजी के कोशज्ञ विद्वानों द्वारा यह कोश अत्यंत महत्वपूर्ण अंग्रेजी डिक्शनरी माना जाता है । पहला कारण यह था कि डा० जानसन द्वारा निर्मित ऐतिहासिक महत्व के अंग्रेजी कोश की यह साधारशिला बनी । दूसरा कारण यह था कि इसमें समस्त अंग्रेजी शब्दों के वयाशक्ति संकलन का लक्ष्य पहली बार रखा गया । तीसरा कारण व्युत्पत्ति निर्देश करने और उच्चारणसंकेत देने की पद्धति के प्रवर्तन का प्रायास था ।

जाँनसन के अंग्रेजी कोश का महत्व(१७४७ — १७५५ ई०)

इठली और फांस एकेडमीशियनों द्वारा ऐसले प्रामाणिक कोशों की रचना का कार्यक्रम प्रवर्तित हो गया था जिनमें परिनिष्ठित भाषा के मान्यताप्राप्त प्रयोगरुपों का स्थिरीकरणऔर प्रमाणीकरण किया जा सके । जर्मन, स्पेनी, फ्रांसीसी और इताली भाषाओं में ऐसे कोशों की रचना का प्रयास चल रहा था ।

अंग्रेजी भाषा का साहित्यिक सवरूप— पुष्ट, विकसित, मान्य एवं विरनिष्ठित होता चल रहा था । पद्य या छंदोबद्ध भाषा के अतिरिक्त वच की रचनाओं को साहित्यिक आदर प्राप्त होने लगा था । फलत अंग्रेजी भाषा का तत्कालीन स्वरूप परिनिष्ठित भाषा के स्तर पर ग्राह्य और मान्य हो गया था । अतः साहित्यकार, पुस्तक प्रकाशक और प्रचारक यह महसूस करने लगे थे कि परिनिष्ठित अंग्रेजी कोश का निर्माण अत्यंत आवश्यक हो गया है । अनेक पुस्तक प्रकाशकों और विक्रेताओं के उत्साह और सहयोग से पर्याप्त धनराशि व्यय करके जाँनसन द्वारा अनेक बर्षों के अथक प्रयास से अंग्रेजी की डिक्शनरी १७४७ से १७५५ ई० के बीच तैयार कर प्रकाशित की गई । इसी बीच'कन्साइज डिक्शनरी' भी १७५३ ई० में जान वेसली द्वारा प्रस्तुत होकर सामने आई । आजतक जानसन का उक्त कोश अपने आप में अत्यंत ऐतिहासिक महत्व का माना जाता है । इसमें मल शब्दों से अँग्रेजी के व्युत्पन्न शब्दों का विकासक्रम दिखाने के साथ साथ उनके विभिन्न अर्थप्रयोगों को भी उदाहरणों द्वारा स्पष्ट
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किया गया है । अंग्रेजी के उक्तृष्ट लेखकों से उदाहरणों के उद्धरण लिए गए हैं ।

उनके इस कार्य का अंग्रेजी भाषी जनता ने बडे़ हर्ष और उल्लास के साथ स्वागत किया । इसमें शब्दों का अर्थ परिभाषा के रूप में भी दिया गाय है । नबकोशविद्या के इतिहास में यह उपलब्धि सर्ब- प्रथम और अत्यंत महत्वशाली कही गई । इसी समय चालीस विद्वान् व्कक्ति एक साथ मिलकर फ्रास में फ्रांसीसी भाषा का कोश बना रहे थे । उसकी चर्चा करतै हुए जेन्टिलमैन्स मैगजीन नामक पत्र ने कहा था कि फ्रांस के चालीस विद्वान् लगभग आधी शती में जो कार्ध न कर सके उसे अकेले जौनसन ने सात वर्षों में कर दिखाया । अंग्रेज जनता ने उस कोश को राष्ट्र और भाषा दोनों के उत्कर्ष की दृष्टि से अत्यंत महत्व का बताया । अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण, भाषाशुद्धता की रक्षा और प्रयोग का स्थिरीकरण करने में इस कोश की बहुत बडी देन मानी जाती है । परंतु इसमें दिए गए साहित्यिक उद्धरण— ग्रंथों से संदर्भ निर्देशपूर्वक न लेकर— कोशकार ने अपनी स्मृति से दे दिए हैं । फलतः अनेक स्थलों में उद्धरणों की अशुद्धि इस कोश की एक त्रुटि बन गई । परंतु त्वरित गति से स्वल्प समय में कार्य समाप्त करने की आकांक्षा के कारण त्रुटि रह गई । पुस्तक एकत्र करना, उद्धरण प्रतिलिपि करना और उनका संयोजन करना, आदि कार्य इतना श्रम— समय— साध्य था जो सात बर्षों में एक व्यक्ति के द्वारा सर्वथा असंभव था ।

इसके बाद १८वी० शती के अंत तक अंग्रेजी में अनेक कोश बने । विलियम कर्निक, विलियम पैरी, टामस शेरिडन और जान वाकर ने उच्चारण आदि की समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया । इन कोशों को 'जोँनसन ' के कोश का संक्षिप्त या लघु संस्करण कहा गया है । उच्चारण का ठीक ठीक स्वरुप बताने का कार्य समस्यात्मक था । उसका पूर्णतः समाधान करने की चेष्टा 'जांनसन' या बाद के कोशकारों ने की । जौंन वाकर ने उक्त दिशा में विशेष प्रयत्न किया । इन कारणों से 'जोंनसन' के कोश की कुछ आलोचना भी होती रही । पर १९ वीं शती के पूर्वार्ध से उसका संमान बढ़ गया, उसकी महत्ता स्वीकृत हो गई । उसमें नए शब्दों, अर्थों, उद्धरणों आदि के परिवर्धन- कारी परिशिष्टों कों, अनेक विद्वानों की सहायता से जोड़कर उक्त कोश के संशोधित और संवर्धित संस्करण प्रकाशित होते रहे । १८९८ में ऐसी ही एक संस्करण प्रकाशित हुआ जो अब तक मान्य बना हुआ है ।

इंग्लिस्तानितों के अंग्रेजी प्रयोगों से अमेरिकनों की अंग्रेजी को स्वतंत्र देखकर वेब्स्टर ने अमेरिकी अंग्रेजी का एक महत्वपूर्ण कोश बनाया । परंतु उनके कोश की बहुत सी व्युत्पत्तियाँ ऐतिहासिक प्रमाणो पर आधारित न होकर निज की स्वतंत्र कल्पना से आव्ष्कृत थीं । बाद के संस्करणों में भाषाविज्ञों ने उनका संशोधन कर दिया । आज भी वेब्स्टर के इस कोश का दो जिल्दों में 'इन्टरनैशनल' संस्करण प्रकाशित होता है और कुछ दृष्टियों से इसका आज भी महत्व बना हुआ है । इस युग का दूसरा कोशकार रिचर्डसन था । उसके कोश में उद्धरणों के द्वारा शब्दार्थबोध की युक्ति महत्वपूर्ण मानी गई और अर्थबोधक परिभाषाओं को हटाकर केवल उद्धरणों से अर्थ—प्रहत्यायन की पद्धति अपनाई गई । जांनसन से भी आगे बढ़कर — १३०० ईस्वी के पूर्ववर्ती चासर, गोवर आदि कलाकारों के लेखखंडों को उसने उदवृत किया । परंतु उद्धरणों की तिथि उन्होने नहीं दी । व्यावहारिक दृष्टि से अमसाध्य, अधिक व्यय— समय— साध्य यह पद्धति— शब्दकोश से अर्थज्ञान की कामना करनेवाले पाठकों के लिये उपयोगीऔर सुविधाजनक न हुई । सामान्य पाठकों के लिये यह अति क्लिष्ट भी थी तथा अर्थ तक पहुँचने में समय भी बहुत लगता था । फिर भी कभी- कभी अनिश्चय रह ही जाता था । जनता में अधिक उपयोगी और लोकप्रिय न होने परह भी इस कोश से एक बडा भारी लाभ हुआ । प्राचीन और प्रसिद्ध लेखकों के अत्यधिक उद्धरणों का इसमें संकलन हो गवा और वले स्थायी रूप में सुरक्षित भी हो गए ।

आक्सफोर्ड डिक्शनारी: योजना और निर्माण

१९ बीं शताब्दी के मध्य लंदन की फिलालाजिकल सोसाइटी में स्वपठित निबंधों द्वारा आर्कबिशय डा० आर० सी० ट्रेंच ने अंग्रजी के तत्कालीन कोशों की कुछ कमियों की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया । उन्होंने यह भी कहा कि नाथनवेली, जानसन तथा उनके उत्तराधिकारियों के कोश महत्वपूर्ण हैं । पर उन कोशों द्वारा शब्दों के पारिवारिक—ऐतिहासिक—विकास, अर्थ और तात्पर्य में परिवर्तन एवं विकास तथा रूपविचार के विषय में विशेष ध्यान नहीं दिया गया । शब्दों और अर्थों के प्रयोग एवं ऐतिहासिक विकास की दिशा का कोश द्वारा पूर्ण परिचय मिलना चाहिए । संक्षेप में भाषाविक्षान और साहित्य के वैकासिक प्रयोगक्रम के साथ अर्थविकास (सिमेंटिक चैजेज) और उत्पत्तिमूलक विकास की — कोश में वैज्ञानिक और साहित्यिक—उभयविध संगति और पूर्णता अत्येत अपेक्षित है । इन त्रुटियों के साथ साथ पूर्वोक्त कोशों में विरल और अप्रचलित शब्दों का संकलन भी अपूर्ण था ।

उन्होंने यह भी निर्देश किया कि कोशनिर्माण के वैज्ञानिक लक्ष्य की पूर्ति के लिये भाषा के प्राचीन साहित्य और वैज्ञानिक दृष्टिपद्धति का सम्यगविनियोग और उपयोग किए बिना कोश की सर्वांगीण पूर्णता संभब नहीं होगी । यह भी संकेत किया कि इस कार्य की विशालता को देखते हुए जो अध्ययन, अनुशीलन और श्रम अपेक्षित है उसका संपादन एक दो व्यक्तियों द्वारा संभव भी नहीं है । अनेक भाषाविज्ञ, भाषावैज्ञानिक और साहित्य के मर्मज्ञ विद्वानों के संमिलित प्रयास से ही अभीप्सित कोश का निर्माण हो सकता है ।

लंदन की फि़लालाजिकल सोसाइटी के संमुख उन्होंने अंग्रेजी का विशाल और पूर्ण बनाने का प्रस्ताव उपस्थित किया । उन्होंने सुझाव दिया कि वेली, जानसन, रिचर्डसन, वेवस्टक आदि के कोशों को पूर्ण करने के लिये निर्धारित कोशपद्धति के आधार पर सामग्री का संकलन किया जाय, उनके परिशिष्ट बनाए जायँ । शब्दप्रयोग, रुपविकास, अर्थविकास, प्रयोगमूलक नाना अर्थच्छायाओं का, शब्दार्थनिर्देश के संदर्भ में, सोदाहरण उपन्यास करना चाहिए । शब्द और उससे द्योतित अर्थ के विकास का कोश में पूर्ण इतिहास दिखाना चाहिए । उक्त संस्था द्वारा संकलित सामग्री के आधार पर और
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डा० ट्रेंच के निर्देंशों का आधार लेकर अनेक विद्वानों द्वारा अनेक वर्षों में संकलित सामग्री की सहायता से आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी का प्रथम रुप और संस्करण प्रकाशित हुआ ।

आठ सौ वर्षों के अंग्रेजी साहित्य में प्रयुक्त लिखित रूपों, अर्थों आदि का यथासंभव विकास इस कोश में दिखाया गया । प्रथम प्रयोग से लेकर उनके प्रमुख प्रयोगक्रम की जीवनी दिखाई गई । भाषा के प्रच- लित अप्रचलित— प्रायः सभी शब्दरूपों और उनके अर्थांश का वैकासिक एवं ऐतिहासिक विवरण भी यथासंभव दिया गया है । अप्रचलित शब्दों के उलब्ध अंतिम प्रयोग की सूचना देने का भी प्रयास हुआ । भाषावैज्ञानिक अध्ययन और अनुशीलन के आधार पर शब्दों की व्युत्पत्तदियों का भा संयोजन किया गया । इस ऐतिहासिक कोश का महत्व था इसकी यथासंभव संपूर्णता । इसी आधार पर उस यग के भाषखाविज्ञों ने इस कोश को समादर दिया और इसकि प्रशंसा हुई । इसकी सामग्री के संकलन में पचास लाख शब्द चिटें एकत्र हुई थी और उनके संकलन का कार्य लगभग दो सहस्र उत्साही पाठकों ने किया था । इस संदर्भ में कुछ विस्तार से विवरण देने का तात्पर्य इतना ही है कि हम हिंदी के सबसे बडे़ बर्तमान कोश— हिंदी— शब्द— सागर — के संपादन में भी समस्त आवश्यक एवं अपेक्षित साधनों और उपकरणों की एकत्र करने में सर्वथा समर्थ नहीं हो पाए हैं । इस विषय की चर्चा अन्यत्र की जा रही है ।

इसी संबंध में यह भी ध्यान रखने की बात है कि उक्त कोश के पुनः संशोधित और परिवर्धित संस्करण का संपादन कार्य निरंतर चला आ रहा है । सौ सवा सौ वर्षों से इंग्लैड के कोशविज्ञान- विशारद विद्वानों की मंड़ली सर्वदा कार्यरत रहती है । अपार धनराशि का निरंतर व्यय किया जाता है । इन समस्त साधनों के योग से और संस्थाविशेष के निर्देशन में विशेष विभाग द्वारा उक्त कोश के परहिष्कार, विस्तार आँर पुनः संपादन का अखंड यज्ञ चल रहा है । ज्ञान विज्ञान की सभी साखाओं के कोशप्रेमी विद्वानों की अबाध सहायता भी सदा प्राप्त होती रहती है । काशविज्ञान, भाषाविज्ञान, साहित्यविद्या और भाषा एवं साहित्य के धुरंधर और ऐतिहासिक सुधियों द्वारा उसके पुनः संपादन में सभी आवश्यक प्रयत्न होते चल रहे हैं । इतना ही नहीं, उक्त कार्य में देश के बहुसंख्यक जागरूक पाठसों का भी बिना पारिश्रमिक के स्वल्वाधिक सहयोग मिलता रहा है ।

'फिलालाजिकल सोसाइटी' की योजना के साथ साथ अनेक अन्य छोटे बडे़ कोश भी बनते रहे जो कोशविद्या की सर्वागीणता के बिचार से अपूर्ण भी थे तथा उनमें अन्य प्रकार की त्रुटियाँ या इसी ढंग से मिलते जुलते कोश बनते रहें ।

उपर्युक्त अंग्रेजी कोश को आरंभिक विकास का त्वरित सिंहाव- लोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि (१) — अंग्रेजी कोशों में सर्वप्रथम लिखित लैटिन शब्दसूचियों का सरल लैटिन और अंग्रेजी में अर्थ देने से कोशकला का प्रारंभ हुआ । ह प्रथम रूप था । (२) — दूसरे सोपान पर अंग्रेजी शब्दसूचियों का तथा लैटिन और अंग्रेजी शब्दसंग्रहों का विस्तार हुआ । (३) — तीसरे चरण में इंगलिश— लैटिन के शब्दसंग्रह का कार्य हुआ । (४) — चतुर्थ अवस्था में अंग्रोजी और इतर भाषाओं के कोश बने । (५) — पाँचवे चरण में अंग्रेजी के क्लिट शब्दों के शब्दसंग्रहवाले ओर कौश बने । वेष्ली द्वारा इनमें सामान्य शब्दों को जोड़ने के साथ साथ व्युत्पत्तिनिर्देश की भी चेष्टा की गई । अब शब्दप्रयोगों के उदाहरण भी संगृहीत होने लगे । (६) — छठी अवस्था में उच्च कोटि के कोशनिर्माण की चेष्टा और अर्थम्पाष्टीकरण के लिये साहित्य में प्रयुक्त उद्धरणों का उपयोग प्रारंभ हुआ । (७) — इसी के साथ साथ या कुछ पहले से ही अंग्रंजी कोशों में प्रयुज्यमान भाषा शब्दों के उच्चारणसंकेत देने की भावना प्रारंभ हुई । (८) — अष्टम स्थिति वह है जब रिचर्डसन द्वारा शब्दव्याख्या छोड़वर केवल लदाहरणमाध्यम से अर्थबोध का प्रयास हुआ । और आगे चलकर अतिम रूप से इन सबकी परिणति डा० ट्रेंच की प्रेरणा से निर्मित महाकोश में दिखाई देती है । शब्दोतच्चारण , शब्द, अर्थ शब्दप्रयोग और व्यपत्ति संबंद्ध शब्दप्रोयग के इतिहासक्रम आदि को विस्तृत और ऐतिहासिक आयामो के साथ कोश में अनुस्यूत करने की चेष्टा हुई है ।

कोशविज्ञान की आरंभिक स्थिति में पश्चिम के कोश भी पर्याय सूचित करते हैं । धीरे धीरे विभिन्न अर्थों का भी निर्देश होने लगा । पर व्याकरण, उच्चारणसंकेत, शब्दार्थप्रयोग का इतिहास, व्युत्पत्तिनिर्देश और उदारहण द्वारा तात्पर्यविवरण का उनमें अभाव था । संस्कृत कोशों में भी यह नहीं था । क्योंकि वे ऐसे छंदोबद्ध शब्दसंग्रह थे जो पर्यायों के माध्यम से एक या अनेक अर्थों का परिचय देते थे । परंतु संस्कृत के प्रसिद्ध वैयाकरण 'भानुजी दीक्षित' द्वारा निर्मित अमरकोश की 'व्याख्यासुधा' नामक टीका में सभी शब्दों की व्याकरणानुसारी व्य़ुत्पत्ति देने का स्तुत्य प्रयास किया गया है ।

पश्चिम में ऐतिहासिक और भाषावैज्ञानिक अनुशीलन की दृष्टि ने कोश के आधुनिक रूप को पूर्ण बनाने का प्रयास किया । प्रथमतः फिलिप्स के कोश में शब्दमृल का व्युत्पत्ति के प्रसंग में निर्देश- मात्र हुआ । शब्दसागर के तत्सम और अनेक तदभव शब्दों की व्युत्पत्ति इसी रूप में संकेतित मात्र है । यहीं से अंग्रेजी कोशों में व्युत्पत्तिप्रदर्शन का अति सामान्य आरंभ होता है । इससे कुछ पहले या इसी के आसपास शब्दार्थबोध के लिये पर्याय मात्र देने के स्थान पर अर्थसूचक व्याख्या लिखने की पद्धति आरंभ हो गई थी । जाँनसन से एकाध ही वर्ष पूर्व प्रकाशित मार्टिन के कोश में अर्थच्छायाओं को यद्यपि विस्तृत संदर्भ में देखने का प्रयास हुआ, तथापि व्युत्पत्तिसंकेत वहाँ लुप्त हो गया । जाँनसान के कोश में नाना अर्थच्छायाओं और उदाहरणों के साथ साथ शब्दप्रयोगक के स्मृतिमूलक उदारहण भी दिए गए । संकेतरूप में मूल शब्द के निर्देश मात्र से व्युत्पत्तिसंबंध का सचन किया जाता था । समानार्थक फांसीसी पर्याय भी दिए गए । शेरिडन और वाकर के कोश, जाँनसन की अपेक्षा अल्प महत्व के होने पर भी उच्चारणसंकेत की दिशा में अधिक प्रयत्नशील रहे । वेबस्टर के कोश में छोटे पैमाने पर कोशकला की रचनाविधानसंबंधी पूर्वमान्यताओं के उपयोग का सर्वाधिक प्रयास हुआ । दूसरी ओर पूर्वोक्त विशेषताओं
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के अतिरिक्त डा० रिचर्डसन के कोश में लातिन के साथ फ्रांसीसी इताली, स्पेनी भाषा के शब्दों का उपन्यास यह सूचित करता है कि उस युग के कोशकारों की चेतना उदबुद्धतर हो रही थी और तुलनात्मक दृष्टि का विकास होने लगा था । इस अन्य कोश में तुलनात्मक रूपों की प्रवृत्ति तो लुप्त हो गई पर अर्थव्याख्या में कुछ कुछ विश्वकोशीय पद्धति का प्रभाव लक्षित होने लगा था । १८६० के 'वेबस्टर' के कोश में पुनः लातिन, इताली, स्पेनी और फ्रासीसी शब्दरुपों से भी तुलनात्मक बीध का आभास मिलता है पर अंग्रेजी कोशों की यह सीमा इन्हीं भाषाओं के घेरे में पडी़ रही ।

धीरे धीरे कोशकला के आदर्श—रचना विधान की उपादान सामग्रियों का प्रयोग— थोडी़ या बहुत मात्रा में — आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी की रचना के पहले से भी हाने लगा था । पर उनमें वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार सर्वथा पुष्ट और सुव्यवस्थित नहीं थे । वे उपादान किसी एक कोशों में योजनाबद्ध क्रम से सयोजित न होकर भिन्न भिन्न काशों में विकीर्ण थे । फिर भी उनसे कोशनिर्माण के आवश्यक उपादानों की उपयोगिता सूचित और निर्देशित ही चुकी थी । पूर्व कोशों की अपेक्षा परवर्ती कोशों में प्रायः अर्थप्रतिपादन की पूर्णता, यथार्थता और शुद्धता के साथ- साथ ऐतिहासिक और भाष वैज्ञानिक प्रौढ़ता बढती गई । डा० ट्रेंच की मनीषा ने समस्त पूर्वसंकेतिक उपादानों के समुचित विनियोग एवं समावेश का लिंगनिर्देश किया । उन्होंने सुव्यवस्थित ढंग से और योजनाबद्ध रूप में उनके उपयोग की महत्ता को ठीक ठीक समझा और उनके समुचित एवं व्यवस्थित विनियोग और प्रयोग से कोशरचना के कार्य को पूर्णता की दिशा में बढा़ने का प्रयास किया ।

आक्सफोर्ढ इंग्लिश डिक्शनरी के निर्माण में उपयोजित रचनाविधान ने कोशनिर्माण की एक ऐसी भूमिका प्रतिष्ठित की जो क्रमशः विकास की ओर बढ़ती चल रही है । साहित्य और भाषा के ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक अध्ययन, अनुशीलन और अर्थविचार अथवा शब्दर्थविचार का कुशल परिशीलन उसमें लक्षित होता है । उसको पूर्णता की ओर अग्रसर करने के लिये शक्ति, सामर्थ्य, सहयोग और धन का व्यापक साधन जहाँ अपेक्षित है वहाँ विभिन्न शास्त्रज्ञों, विद्यावेत्ताओं, शब्दव्यवहार के मर्मज्ञ मनीषियों, भाषा तथा साहित्य के ऐतिहासिक परिशोलकों और शोधकर्ताओं की मेधा, मनीषा, सूक्ष्म बोध और प्रतिभा भी अपेक्षित है । यह कार्य स्वल्प समय में साध्य भी नहीं है । इसके निर्माण और विस्तार का कार्य व्यापक परिवेश बडे पैमाने पर अखंड रूप से चलते रहना चाहिए । आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी का कार्य निरंतर चलता रहता है । उसेक संशोधन, परिष्करण, संवर्धन आदि की प्रक्रिया और नवीनतम संस्करण की प्रकाशनसामग्री का संचालन होता चलता है । संपादकों की अनेक पीढि़यों ने वहाँ कार्य किया । इतना ही नहीं— उसके आधार पर अनेक उपयोगी 'संक्षिप्त', 'लघु', 'पाकेट', आदि संस्करण छपते और लाखों की संख्या में बिकते रहते हैं । अन्य सैकडो़ हजारों अंग्रेजी कोशों के — जिनमें बडे़ छोटे सभी प्रकार के कोश हैं, — रचना में वहाँ से सामग्री और सहायता मिलती है । उसे प्रामाणिक और आप्त मान लिया गया है ।

यह प्रसंग यहीं समाप्त किया जा रहा है । यहाँ चर्चा का उद्देश्य केवल इतना ही संकेत करना था कि भारत में जो आधुनिक कोश बने वे इन्हीं पाश्चात्य कोशों की पद्धति पर चले । उनके निर्माण में पूरी सफलता चाहे न भी मिल सकी हो पर उनकी पद्धति भी वही थी जिसे हम आधुनिक कोशविज्ञान की रचनाशैली कहते हैं ।

पाश्चात्य विद्वानों का योगदान

संस्कृत तथा भारतीय भाषाओं के कोश

भारत में विदेशी विद्वानों, धर्मप्रचारकों और सरकारी शासकों द्वारा आधुनिक ढंग से कोशनिर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ — यह कहा जा चुका है । ये कोश मुख्यतः दो रूपों में बने— (१) विदेशी भाषाओं में (विशेषतः अंग्रेजी में ) और (२) अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं में । विदेशी भाषाओं के माध्यम से भारतीय भाषाओं के जो कोश बने उनमें संस्कृत के कोशों का स्थान महत्वपूर्ण है । इनके अलावा दूसरे वे कोश हैं जो अँग्रेजी आदि के माध्यम से बने । वे या तो हिंदुस्तानी, हिंदी और उर्दू के कोश हैं या अन्य भारतीय भाषाओं के ।

१८१९ में डा० 'विलसन' का 'संस्कृत इंगलिश कोश' प्रकाशित हुआ । अंग्रेजी के माध्यम से प्रकाशित होनेवाले इस संस्कृत कोश को प्रस्तुत दिशा में महत्वपूर्ण पर आरंभिक कार्य कहा जा सकता है । इस कति की भूमिका से पता चलता है कि उस समय पुरानी पद्धति के कुछ संस्कृत कोश वर्तमान थे । कोलब्रुक द्वारा अनुदित अमरसोश भी वर्तमान था । वस्तुतः 'विलसन' का यह ग्रंथ पर्यायवाची द्विभाषी कोश कहा जा सकता है । मोनियर विलियम्स की दो कृतियाँ— संस्कृत अंग्रेजी कोश और इंगलिश संस्कृत कोश महत्वपूर्ण कोश हैं । उनका प्रकाशन १८५१ ई० में हुआ । इस कोश की प्रेरणा विलसन के ग्रंथ से मिली । विलसन ने अपने कोश के नवीन संस्करण की भूमिका में अपना मंतव्य प्रकट किय है । वे यह चाहते थे के संस्कृत के सभा शब्दों का वैज्ञानिक ढंग से ऐसा आकलन हो जिससे संस्कृत की लगभग दो हजार धातुओं के अंतर्गत समस्त संस्कृत शब्दों का समावेश हो जाय । इस दिशा में उन्होंने थोडा़ प्रयत्न भी किया । इन दोनों के बाद महत्वपूर्ण ग्रंथ आप्टे का कोश आता है जो संस्कृत अंग्रेजी और अंग्रेजी संस्कृत दोनों रूपों में संपादित किया गया । विलियम्स के कोश में धातुमूलक व्युत्पत्ति के साथ साथ शब्दप्रयोग का संदर्भ- संकेत भी दिया गय़ा । परंतु आपटे के कोश में संकेतमात्र ही नहीं, उद्धरण भई दिए गए हैं । पूर्व कोश की अपेक्षा वह अधिक उपयोगी दिखाई पडा़ । कुछ वर्षों पूर्व तीन खंडों में उनके कोशका संशोधित संबर्धित और विस्तृत संस्करण प्रकाशित हुआ है जो कदाचित तबतक के समस्त 'संस्कृत अंग्रेजी' कोशों में सर्वाधिक प्रामाणिक एवं उपयोगा
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कहा जा सकता है । इनके अतिरिक्त भी अल्प महत्व के अनेक संस्कृत- अंग्रेजी— कोश बनते रहे जिनमें कुछ प्रसिद्ध कोशों के नाम आगे दिए जा रहे हैं— (१) संस्कृत अंग्रेजी कोश (संपादक— डब्ल्यू० यीट्सः १८४६) (२) संस्कृत अंग्रेजी डिक्शनरी (लक्ष्मण रामचंद्र वैद्य— १८८९) (३) संस्कृत डिक्शनरी (थियोडोर बेन्फे— १८६६), (४) ग्रासमैन लेक्सिकन टु दि ऋग्वेद और (५) प्रैक्यिकल संस्कृत डिक्शनरी— विद ट्रानस्लिटरेशन, एक्सेंचुएशन एंड एटिमालाजिकल एनालसिस थ्रू आउट— मैक्डानल्ड, १९२४ ई० ।

पूना में कैंद्रीय सरकार द्वारा प्रदत्त आर्थिक अनुदान से डा० कत्रे के निदेशन में संस्कृत का एक विशाल कोश बन रहा है । उसकी आधारभूत सामग्री का भी स्वतंत्र रीति से वैज्ञानिक और आलोचनात्मक पद्धति पर आलोचन और पाठनिर्धारण किया जा रहा है । उक्त कोश के लिये शब्दों का जो प्रामाणिक संकलन हो रहा है वह प्रायः सर्वाशतः यथासंभव आलोचनात्मक ढंग से संपादित या संकलित है । डा० 'कत्रे' संस्कृत के साथ साथ आधुनिक भाषाविज्ञान के बडे विद्वान् हैं । इस कोश के शब्दसंकलन ओर अर्थनिर्धारण में तत्तत विषयों के संस्कृतज्ञ, प्रौढ पंडीतों की पूरी सहायता लेने का प्रयतन हो रहा है । संपादनविज्ञान की पद्धति पर संपादिन प्रामाणिक और आलोचित आधारग्रंथों से ही यथासंभव शब्दसंकलन की चेष्टा हो रही है । भारतीविद्या (इंडोलाजी) में अबतक जो भी महत्वपूर्ण अनुशीलन विश्व की किसी भाषा में हुआ है उसके सर्वांशतः उपयोग और विनियोग का प्रयास हो रहा है । १७—१८ वर्षों से यह प्रयास चल रहा है जिसमें काफी समय, श्रम और धनराशि व्यय हो रही है तथा विषयज्ञ विद्वज्जनों का अधिक से अधिक सहयोग पाने की चेष्टा की जा रही है । भाषाविज्ञान की न्यूनतम उपलब्धियों का सहारा लेकर व्युत्पत्तिनिर्धारिणादि की व्यवस्था हो रही है । अतः आशा है, यह कोश निश्चय ही उच्चतर स्तर का होगा । अंग्रेजी, जर्मन, फ्रासीसी, रूसी आदि भाषाओं के समस्त संपन्न संस्कृत कोशों की विशाल सामग्री का परीक्षापूर्वक ग्रहण हो रहा है । अतः निश्चय ही उक्त कोश, अबतक के समस्त संस्कृत— अंग्रेजी— कोशों में श्रेष्ठतम होगा । क्या ही अच्छा होता यदि उक्त संस्कृत कोश के हिंदी तथा अन्य सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी संस्करण छापे जाते ।

मोनियर विलियम्स के बाद अनेक संस्कृत अंग्रेजी कोश बने । परंतु विलसन के नवीन संस्करण और विलियम्स के कोश के सामने उनका विशेष प्रचार नहीं हो पाया । विलसन के कोश का एक संक्षिप्त संस्करण भी १८७० ई० में रामजसन ने संपादित किया जिसका काफी प्रचार हुआ । मेक्डानक की प्रैक्यिकल संस्कृत- इंगलिश— डिक्शनरी अवश्य ही अत्यंत महत्वपूर्ण कोश है । उसमें संस्कृत शव्दों के अर्थ का कालावधिक परिचय भी दिया गया है, शब्द के अधिक प्रचलित और स्वल्प प्रचलित अर्थों को सूचित करने का भी प्रयास हुआ है । 'बैन्फे' की भी 'संस्कृत— इंगलिश— डिकग्शनरी' प्रकाशित हुई । और भी अनेक छोटे बडे संस्कृत कोश निर्मित हुए । परंतु विलसन विलियम्स और आप्टे— इनकी संस्कृत इंगलिश कोशत्रयी को सर्वाधिक सफलता एवं प्रसिद्धि मिली ।

यहाँ राथ और बोथलिंक्ग् द्वारा प्रकाशित संस्कृत— जर्मन— कोश के उल्लेख के बीना समस्त विवरण अपूर्ण ही रह जायगा । ओटो बोथलिंक्ग् तथा 'रुडोल्फ राथ' के संयक्त संपादकत्व में संस्कृत का जर्मानभाषी यह कोश— संस्कृत बोर्तेरबुख— १८५८ ई० से प्रारंभ होकर १८७५ ई० में पूर्ण हुआ । यह कोश भारतीविद्या का महाज्ञान- कोश है । अत्यंत विशाल और सात जिल्दों के इस कोश में प्रभूत सामग्री भरी पडी है । इसका एक संक्षिप्त संस्करण भी १८७९ से लेकर १८८९ ई० तक प्रकाशित होता रहा । वह भी सात जिल्दों में है पर उसकी पृष्ठसंख्या — आधी से भी कम ही । सेंट पीटरस्बर्ग से प्रकाशित यह संस्कृत— जर्मन— कोश व्यावहारिक उपयोगिता से पूर्ण होकर भी अत्यंत प्रामाणिक है । इसके पहले अनेक छोटे बडे संस्कृत कोश जर्मन, फ्रांसीसी, इताली आदि भाषाओं में बन चुके थे । १८४९ ई० में० 'थियोडोर बेन्फे ' का कोश बना था जिसका अंग्रेजी रूपांतर १८५६ में मैक्सम्यूलर के संपादकत्व में प्रकाशित हुआ ।

इनमें से अनेक कोश ऐसे थे जो भारत में और अनेक विदेशों में प्रकाशित हुए ।

हिंदुस्तानी, हिंदी, उर्दू के कोश

हिंदुस्तानी, हिंदी और उर्दू के आधुनिक कोशों का निर्माणकार्य भी पाश्चात्य विद्वानों ने व्यापक पैमाने पर किया । इन भाषाओं एवे अन्य भारतीय भाषाओं के कोशों का निर्माण जिन प्रेरणाओं से पाश्चात्य विद्वानों ने किया उनमें दो बातें कदाचित् सर्वप्रमुख थीं;

(क) धर्म का प्रचार करनेवाले ख्रीष्ट मतावलंबी धर्मोंपदेशक चहते थे कि यहाँ की जनता में घुलमिलकर उनकी भाषा बोल और समझकर उनकी दुर्बलताओं को समझा जाय और तदनुरूप उन्हीं की बोली में इस ढंग से प्रचार किया जाय जिसमें सामाजिक रूढियों ओर बंधनों से पीडित वर्ग, इसाई धर्म के लाभों के लालच में पडकर अपना धर्म- परिवर्तन करे । फरतः यह आवश्यक था कि हिंदी या हिंदुस्तानी, उर्दू तथा बँगला, तमिल, मराठी, मलयालम, कन्नड० तेलगू, उडिया, असमिया आदि भाषाभाषियों के बीच ख्रीष्टीय मत के प्रचारक, उनकी भाषाएँ सीखें और उनमें धडल्लें से व्याख्यान दे सकें तखा ग्रंथरचना कर सकें। परिणामतः इन भाषाओं के अनेक छोटे मोटे व्याकरण और कोशों की विदेशी माध्यम से रचना हुई ।

(ख) दूसरा प्रमुख वर्ग था शासकों का । शासनकार्य की सुविधा और प्रौढता के लिये, शासित की भावना, संस्कृति, धार्मिक विचार, भाषा और उनके धर्मशास्त्र तथा साहित्य की जानकारी भी अनिवार्य थी । एतदर्थ भी इन भाषाओं के कोश बने ।

इन दोनों के अतिरिक्त भारती विद्या भारतीय दर्शन, वैदिक तथा वैदिकेतर संस्कृत साहित्य के विद्याप्रेमी ऐर भाषावैज्ञानिक प्राय़ः निःस्वार्थ भाव से संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं के अनुशीलन में प्रवृत्त हुए तथा तत्तत् विषयों के ग्रंथों की रचना की । इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण कोशग्रंथ भी बने । संस्कृतकोशों की चर्चा की जा चुकी है । 'ए डिक्शनरी आव् मोहमडन लाँ ऐंड बंगला रेवेन्यू टर्मस' (४ भाग— ई० १७९५ ), 'ए ग्वासरी आव् इंडियन टर्मस' (८ भाग— १७९७ ई०), बंगाली सिविल सर्विस टर्मूस्' (एच्. एम. इलियट—
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१८४५ ई० ), ए ग्लासरी आव् जुडिशल ऐंड रेबेन्यू टर्मस इत्यादि ग्रंथों का निर्माण किया गया । इनसे एक ओर तो शासनकार्य में सुविधा प्राप्त हुई और दूसरी ओर पाश्चात्य विद्वानों को भी भारतीय भाषा या संस्कृत के ग्रंथों का अपनी अपनी भाषाओं में अनुवाद करने में सहायता मिली ।

इन कोशों को अलावा पाश्चात्य विद्वानों अथवा उनकी प्रेरणा से भारतीय सुधियों द्वारा उसी पद्धति पर पाली, प्राकृत आदि के कोश भी बने और बन रहे हैं । राबर्ट सीजर ने पाली— संस्कृत— डिक्शनरी का १८७५ ई० में प्रकाशन कराया था । १९२१ ई० में पाली टैकस्ट सोसाइटी के निर्देश्न में पाली — अंग्रेजी—डिक्शनरी बनकर सामने आई । शतावधानी जैनमुनि श्रीनत्नचंद ने 'अर्धमागधी डिक्शनरी' का निर्माण किया । उसमें संस्कृत, गुजराती, हिंदी और अंग्रेजी का प्रयोग उपयोग होने से उसे बहुभाषी शब्दकाश कहना संगत है । 'पाईसद्दमहष्णव' निश्चय ही प्राकृत का अत्यंत विशिष्ट कोश है जिसका पुनः प्रकाशन किया गया है 'प्राकृत टोक्सट सोसाइटी ' की ओर से ।

भारतीय आधुनिक भाषाओं में हिंदी के विशिष्ट स्थान और महत्व की घोषणा किए बिना भी पाश्चात्य विद्वानों ने उसे हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा मान लिया तथा हिंदी या हिदुस्तानी— दोनों ही नामों का उसके लिये— मेरी समझ में— प्रयोग किया । उर्दू को भी उसी की शैली समझा । अतः हिंदुस्तानी और हिंदी के कोशों की ओर उन्होंने विशेष ध्यान दिया । नीचे इसकी चर्चा हो रही है ।

हिंदी—हींदुस्तानी के कोश

हिंदी या हिंदुस्तानी या उर्दू के कोशों का निर्माण भी इसी क्रम में हुआ । जानसन का लघुकोश 'ए लिस्ट आव वन थाटउजंड इंपाटेंट- वड्स' आरंभिक प्रयास था । इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कार्य था विलियम हंटर की हिंदुस्तानी— इंग्लिश— डिक्शनरी (१८०८ ई०)। इसका मुख्य आधार था कैप्टन जोसफ टेलक की 'ए डिक्शनरि आव हिंदुस्तानी एंड इंग्लिश'। टेलर ने अपने उपयोग के लिये इसका निर्माण किया था । हंटर का कोश निरंतर संशोधित और पिरवर्धित संस्करणों में क्रमश— १८१९, १८२० और १८३४ ई० में प्रकाशित होता रहा । जान शेक्सपियर भी कोश का कार्य करते रहे । पर उनके कोश से पूर्व हंटर का कोश तथा एम० टी० आदम की कृति 'दि डिक्शनरी आव हिंदी एंड इंग्लिश' प्रचलित था । डा० गिल- क्राइस्ट की डिक्शनरी 'इंग्लिश ऐंड हिंदुस्तानी' १७८६—९६ में प्रकाशित हो चुकी थी । उसका संक्षिप्त रूप उन्होने ही रोबुक के सहसंपाद- कत्व में १८१० ई० में प्रकाशित किया था । डा० रोजेरी ने उसी को ए डिक्शनरी आव 'इंग्लिश बँगला ऐंड हिंदुस्तानी' नाम से संक्षिप्ततर रूप में कलकत्ता से १८३७ ई० में प्रकाशित कराया था । जे० बी० थामसन की उर्दू— अंग्रेजी डिक्शनरी १८३८ ई० में प्रकाशित हुई । १८१७ ई० में शेक्सपियरद्वारा लंदन से 'अंग्रेजी हिंदुस्तानी, और हिंदुस्तानी अंग्रेजी' कोश प्रकाशित हुआ परंतु इन सबमें रोमन या फालकी लिपि का प्रयोग मुख्यतः होता रहा । इसी बीच १८१२९ ई० में पादरी एम० टी० आदम का महत्वशाली कोश भी सामने आया, जो— जैसा प्रथम संस्करण की भूमिका के पृ० १ में बताया गया है— हिंदी कोश के नाम से कलकत्ता में प्रकाशित हुआ । इसे नागरी का प्रथम कोश कह सकते है जिसमें हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का व्यवहार किया गया । डा० हरकोटस ने भी 'ए डिक्शनरी इंग्लिश ऐंड हिंदुस्तानी' बनाई थी । मद्रास के डा० हैरिस ने बडे व्यापक पैमाने पर एक हिंदुस्तानी— अंग्रेजी कोश का सपादन — कार्य आरंभ किया था । बे बहुत काफी कार्य कर भी चुके थे । पर इसके पूर्ण होने से पहले ही वे दिवंगत हो गए । यह बहुत ही प्रामाणिक ग्रंथ था । सामान्य संद्रभ की भी इसमें सहयाजना थी । इसकी सबसे बडी विशेषथा यह थी कि इसमें दक्खिनी हिंदी के शब्दों का उपयोग हुआ था ।

जान शेक्सपियर ने अपने कोश के निर्माण में इसकी पांडुलिपियों का पूर्ण उपयोग किया । उन्हें इसका हस्तलेख मिला था इंडिया हाउस के आफिस में । इसके शब्दों और अर्थों के संकलन में डा० हैरिस ने भारतीय विद्वानों की पूरी सहायता ली थी ।

इसके आधार पर और संकलित भाग का पूर्ण उपयोग करते हुए अपने कोशो का शेक्सपियर ने परिवर्धित संस्करण १८१४८ ई० में और दूसरा संशोधित संस्करण १८६१ ई० में प्रकाशित कराया । इस विशाल शब्दकोश के दोनों अंशों में बहुत परिवर्धन संशोधन हुआ । दोनों अंस 'हिंतुस्तानी ऐंड इंग्लिश डिक्शनरी' तथा 'इंग्लिश ऐंड हिंदुस्तानी डिक्शनरी ' एक साथ प्रकाशित किए गए । य़ह शब्दकोश विशेष महत्व का है । इसमें सबसे पहले रोमन वर्णों द्वारा शब्दनिर्देशन है, तदनंतर यथा, एस्= संस्कृत, एच् =हिंदी या हिंतुस्तानी, पी=फारसी संकेतों द्वारा काश के शब्द से संबद्ध मूलभाषास्त्रोत का निर्देश हुआ है और हिंदी, हिंदुस्तानी, फारीस, अरबो, अंग्रेजी, पुर्तगाली, तुर्की, ग्रीक, लातिन, तामिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड, बंगला, मराठी, गुजराती आदि के सकेत हैं । तदनतर फारसी में कोशशब्द यथास्थान दिए हुए हैं । यदि आवश्यक हुआ तो नागरी रूप भी दिया गया है । रोमन में फिर वही शब्द है और अंत में अंग्रेजी पर्याय ।

इसी युग में डंकन फोर्बस का कोश— डिक्शनरी हिंदुस्तानी (१८४८ ई०) का भी प्रकाशन किया गया । इसमें कोशशब्दों को फारसी और रोमन में तथा अर्थपर्याय अंग्रेजी में दिया गया है ।

'ए न्यू हिंदुस्तानी इंग्रिश डिक्शनरी ' का फैलन ने बडे श्रम के साथ संपादन किया ओर उसे प्रकाशित कराया । उसका महत्व इस वर्ग के कोशों में सर्वाधिक माना गया । आधुनिक कोशविद्या की पद्धित से निर्मित यह ऐसा कोश है जिसमे पर्यायवाची शेला का भी योग है । इसमें उदाहृत अंश एक आर तो हिंदुस्तानी साहित्य से गृहित हैं दुसरा ओर लोकगीतों के उदाहरण भी दिए गए हैं । इतना ही नहीं, बोलचाल की भाषा और महिलाओं की शुद्ध बोलियों का पहली बार उदाहरण के रूप में यहां उपयोग किया गया है । हिंदुस्तानी शब्दों के अर्थों को बोलचाल की भाषा से ही संकलित करके देने का प्रयास हुआ है । व्युत्पत्तिमूलक अर्थों को पुराने रूपों के आधार पर दिया गया है और कुछ हिंदी शब्दों के धातुओं का भी निर्धारण हुआ है । यह कोश व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी महत्वबूर्ण है तथा उदाहरणों और तदाधारित अर्थनिर्देश की दृष्टि से भी अत्यंत महत्व रखता है । इसका कारण यह
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है कि इसमें बोलचाल की भाषा का मंथन और निकट से सूक्ष्मदर्शन किया गया है । इन्होंने इंग्लिश हिंदुस्तानी का भी कोश तैयार किया । इन कोशों का विवरण संक्षेप में नीटे दिया जा रहा है ।

गिलक्राइस्ट की हिंदुस्तानी इंगलिश डिक्शनरी, जो अपनी प्राचीनता के कारण बडे महत्व की है, १७८६ में बनी थी । इसमें भूमिक देने के अलावा भाषासंबंधी कुछ आवश्यक बातें तथा युद्ध की कहानियाँ भी संगृहीत है । संज्ञा, सर्वनाम, क्रियाविशेषण, अव्यय आदि के शब्द हैं । इसमें संस्कृत तत्सम शब्दों को छो़ दिया गया है परंतु तदभव, देशज एवं भारत में प्रचलित अरबी फारसी के शब्दों की ले लियटा गया है । रोमन वर्णमाला के अनुसार शब्दक्रम है । शब्दों की व्याख्या कम की गई है और अंग्रेजी पर्याय अधिक हैं ।

जे० टी० थामसन ने दो शब्दकोश—(१) उर्दू और अंग्रेजी तथा (२) हिंदी और अंग्रेजी— बनाए । फ्रांसिस गलेडविड ने पर- शियन, हिंदुस्तानी और अंग्रेजी की डिक्शनरी निर्मित की । जे० डी० बेटमस ने ए डिक्शनरी आव हिंदी लैग्वेज (१८७५ ई० में) बनाई ।

कैप्टन टेलर का शब्दकोश (हिंदुस्तानी अंग्रेजी) बना था अपने व्यक्तिगत उपयोग के निमित्त । हंटर ने उसी का आधार लेकर विस्तत कोश बनाया था । कोशकार के कथनानुसार उसका शब्दसंकलन जनता से हुआ था । संस्कृत के तत्सम, तदभव और देशज शब्दों के साथ साथ आरबी, फारसी, ग्रीक, अंग्रेजी, पुर्तगाली के तद्भव शब्द भी और कभी कभी तत्सम और देशज शब्द भी उसमें लिए गए हैं । दक्खिनी हिंदी और बँगाली के शब्द भी नहीं छोडे गए हैं । शब्दों की वैकल्पिक और भूगोलमूलक भिन्नताओं का स्थान स्थान पर संकेत भी किया गया है । रीति रिवाजों का भी अनेक स्थान पर काफी विवरण मिलता है । कुछ व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के प्रयोग में पौराणिक और प्राचीन कथाओं का वर्णन बी मिल जाता है ।

१८१७ में निर्मित शेक्सपियर की हिंदुस्तानी— अंग्रेजी डिक्शनरी में प्रर्याप्त शब्दों की व्युत्पत्ति देने का प्रयत्न लक्षित होता है । शब्दों के पूर्व ही संकेताक्षरों द्वारा भाषाओं का निर्दश हुआ है । शब्दक्रम की योजना में फारसी लिपिमाला का अनुसरण है परंतु संस्कृत से व्युत्पन्न शब्द नागरी लिपि मे हैं । इस कोश के अनेक संस्करहण हुए । चतुर्थ संस्करण में दक्खिनी भाषा के अनेक कवियों से भी शब्द संकलित हुए हैं ।

इन कोशों की रचना में धर्मपर्चार के अतिरिक्त भुख्य उद्देश्य था विदेशी शासन के अधिकारी वर्ग की भारतीय भाषा सिखाना । अतः शब्दसंकलन के क्रम में बोलचाल के शब्दों को इन कोशकारों ने प्रमुखता दी और अप्रचलित या अल्पप्रचलित ततद्सम या तदभव शब्दों के अनावश्यक संकलन से कोशकलेवर को विस्तार से बचानेका उन्होंने प्रयत्न किया । हिंदुस्तानी के इन कुछ कोशों में अधिकतः उर्दू शब्दों का प्राधान्य है और बेटस तथा एकाध और कोशकारों के कोशों को छो़डकर प्रायः सबमें शब्द— क्रम— योजना का आधार फारसी वर्णमाला है । फैलन के कोश में चूँकि मुख्य रूप से बोलचाल की भाषा का आधार गृहीत हुआ था, अतः जाँन टी० प्राट्स ने उर्दू और हिंदी के साहित्यिक ग्रंतों में प्रयुक्त शब्दों के संकलन की ओर विशेष ध्यान दिया । पादरियों और अंग्रेजी शासकों ने निश्चिय हिंदी या हिंदुस्तानी के एकभाषी, द्विभाषी, कोशों और नवीन कोश-रचना-पद्धति का प्रवर्तन किया । लल्लू जी लाल जैसे लोगों ने भी त्रिंभाषी कोश बनाए । श्रीराधेलाल का शब्दकोश (१८७३ ई०), पादरी बेटस का काशी सो (१८७५ ई० में) प्रकाशित हिंदीकोश और मुं० दुर्गाप्रसाद का अंग्रेजी उर्दू कोश (१८९० ई०) —इस दिशा के अनवरत चलते रहनेवाले प्रयास के उदाहरण हैं । १८७३ ई० से लेकर और उन्नीसवीं शती के अंत तक— भारत और बाहर (पेरिस आदि में) इस दिशा के कार्यों का सिंहावलाकन प्रथम संस्करण की भूमिका (पृ० १०२) में दिया गया है । अतः यहाँ इतना ही कहना है कि हिंदी के नव- कोशों की आद्य रचना और प्रेरणा— पश्चिम के कोशकारों द्वारा ही प्राप्त हुई । फलतः हिंदी ही नहीं, उसकी बोलियों के भी अनेक कोश बने । ब्रजभाषा का कदाचित् सर्वप्रसिद्ध कोश है श्री द्वाराकाप्रसाद चतुर्वेदी द्वारा निर्मित— शब्दार्थपाजित । सूर— ब्रजभाष— कोश भी डा० टंडन ने बनाय है । अबधी का प्रसिद्ध नवकोश— श्री रामाज्ञा द्विवेदी द्वारा संपादित काकर हिंदुस्तानी एकाडमी ने प्रकाशित किया है । उदयपुर से इधर एक विशाल राजस्थानी सबद कोश भी प्रकाश में आ रहा है । इसी प्रकार मँथिली काश भी प्रकाशित हो चुका है ।

हिंदीतर भाषाओं में कोश

(क) द्रविड भाषाएँ

भारतीय हिंदीतर भाषा के कोशों का निर्माण भी प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक बराबर चल रहा है ।

तममिल भाषा में कोशनिर्माण की परंपरा बहुत प्राचीन कही जाती है । उनका प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ 'तांलकाप्पियम' कहा जाती है । उसी व्याकरण ग्रंथ में ग्रंथकार ने सूत्र शैली में शब्दकोश तैयार किया था । गंथ के लेखक ने तमिल भाषा के शब्दों को चार वर्गों में विभक्त किया है— (१) सामान्य देशी शब्द० (२) साहित्यिक शब्द, (३) विदेशी भाषाओं से व्युत्पन्न शब्द और (४) संस्कृत से व्युत्पन्न शब्द । इसमें शब्दसंग्रह वर्णानुक्रम से रखा गया है । इसका प्रकाशन यद्यपि अट्ठारहवीं शताब्दी का है तथापि इसकी रचना ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी में बताई जाती है । तमिल का दूसरा कोश 'तिवाकरम' है । १२ खडों का यह कोश अमरकोश के आधार पर बना है । इसमें दस खंडों में वर्गमूलक शब्दसंचय है, ११ वाँ खंड नानार्थ शब्दों का और १२ वाँ समूहवाचक शब्दों का है ।

१६७९ ई० में प्रथम तमिल— पुर्तगाली— कोश बना और १७१० ई० में फादक वेशली ने पूर्णतः अकारादि क्रम पर निर्मित 'कतुर अकाराति' नामक कोश तैयार किया । तमिल का प्रथम अंग्रेजी कोश लूथर के अनुयायी धर्मप्रचारकों द्वारा १७७९ ई० में मलाबार एंड इंग्लिश डिक्शनरी नाम से प्रकाशित हुआ । उसी का दूसरा संस्करण सशेधित रूप से तमिल में 'इंग्लिश डिक्शनरी' के नाम में १८०९ ई० में मुद्रित हुआ । १८५१ ई० में एक त्रिथाषी कोश (अंग्रेजी, तेलगू और तमिल का) प्रकाशित हुआ । इनकी सहायता से अनेक तमिल कोश बनते आ रहे हैं । इस संपन्न और प्राचीन भाषा में व्याकरण
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और कौशों की संपन्न परंपरा है । मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा तमिल का एक विशाल कोश तौयार हुआ है जो अनेक जिल्दों में प्रकाशित है । इसकी शब्दयोजना तमिल वर्णमाला के अनुसार है । इसकी भूमिका में तमिल—कोश—परंपरा के विकास का विस्तृत विवरण दिया गया है ।

इनसे अतिरिक्त प्राचीन और अर्वाचीन कालों में अनेल तमिल कोश निर्मित हुए । इनमें अनेक नवीन कोश ऐसे हैं जिनमें तमिल में अर्थ दिया गया है; कुछ में अग्रेजी द्वारा शब्दार्थ बताया गया है—जैसे 'तमिल लेक्सिकन' और कुछ नए कोश ऐसे भी है जिनमें भारतीय भाषाओं का अर्थबोधन के लिये आश्रय लिया गया है । इन्हीं में एकाध तामिल हिंदी कोश भी है ।

दक्षिण की अन्य द्रविड भाषाओं में भी १९ वीं शती के पूर्वार्ध से ही कोशों की रचना चली आ रही है । इन भाषाओं में आज अनेक उत्तम और विशाल कोश प्रकाशित है या हो रहे हैं । तेलगू के त्रिभाषी कोश की ऊपर चर्चा हुई है । चार्लिस फिलिप्स ब्राउन द्वारा १८५२ ई० में अंग्रेजी तेलगू कोश निर्मित होकर छापा गया । ए तेलगू—इंग्लिश डिक्शनरी का १९०० ई० में निर्माण पी० शंकरनारायण ने किया । १९१५ ई० में आक्सपोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से भी एक तेलगू केश प्रकाशित किया गया । विलियम ऐंडर्सन ने इससे बी बहुत पहले ही, अर्थात १८१२ ई० में अंग्रेजी—मलयालम का कोश बनाया ता । जान गैरेट का अंग्रेजी कर्नाटकी (कनारी) कोश १८६५ ई० में प्रकाशित हुआ । बाद में भी एफ्० कितल द्वारा संपादित (१८९४ ई० में) कन्नड का भी एक कोश छपा ।

(ख) आर्यभाषाएँ

हिंदी के अतिरिक्त आधुनिक आर्यभाषाओं के कोशों में बँगाला और मराठी का कोशसाहित्य कदाचित् अत्यंत सपन्न कहा जा सकता है । इन भाषाओं के अलावा अन्य आर्यभाषाओं में भी आधुनिक कोशों की कमी नहीं है । पंजाबी में बहुत से पुराने कोश हैं । उडिया, गुजराती नेपाली, काश्मीरी, असमिया आदि में भी कोश बने हैं । पर बँगाला, मराठी और पंजाबी की चर्चा ही यहाँ उदाहरण रूप में की जा रही है ।

बँगला कोश

बँगला के कोशों की परंपरा—बँगाल भाषा का विकास होने के बाद से—बराबर चल रही है । ईधुनिक ढंग के कोशों में प्रकृति- वाद अभिघान नामक विशाल बँगाल कोश उल्लेखनीय है जिसका संपादन राधाकमल विद्यालंकार ने किया । १८११ ई० में यह प्रकाशित हुआ । यह शब्दोकोश वस्तुतः संस्कृत बँगाल शब्दकोश है । इसका पूर्णतः परिशोधित और परिवर्धित संस्करण १९११ ई० में श्रीशरच्चंद्र शास्त्री द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हुआ । इसका षष्ठ संस्करण तक देखने को मिला है । कदाचित् इससे भी पहले बंगला पुर्तगाली डिक्शनरी बन चुकी थी । पादरी मेनुअल ने बँगला व्याकरण के साथ बँगला—पुर्तगाली—बँगला केश (संभवतः) बनाए थे । कहा जाता है कि रामपुर के पादरी केरे साहब ने १८२५ ई० बहुत बँगला—इंगलिश—कोश बनाला था । ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से १८३३ ई० में बँगला—संस्कृत—इंगलिश—डिक्शनरी तैयार करवाई गई थी । हाउंटर और रामकमल सेन का बँगलाइंगलिश कोश भी अत्यंत प्रसिद्ध है । पादरी केरे के बँगला अंग्रेजी कोश में ८०००० शब्द थे । इनके अतिरिक्त भी अनेक छोटे बडे बँगला अंग्रेजी कोश भी बने । केवल बँगला लिपि और भाषा में ही ज्ञानेंद्र मोहन दास का बँगला भाषार आभिधान (द्वितीय संस्कारण १९२७) और पाँच जिल्दोंवाला हरिचरण वंद्योपाध्याय द्वारा निर्मित बंगीय शब्दकोश दोनों उत्कृष्ट रचनाएँ मानी जाती है । बँगला में उन्नीसवीं शताब्दी से आजतक छोटे बडे़ शब्दकोशों के निर्माण की परंपरा चली आ रही है । छोटे कोशों में चलंतिका अत्यंत लोकप्रिय है । सैकडों अन्य कोश भी आज तक रचे गए और प्रकाशित हो चुके हैं । श्री योगेशचंद्र राय का बँगला शब्दकोश भी प्रसिद्ध रचना है । इस ग्रंथ में अनेक आधारिक और सहायक ग्रंथों की चर्चा है । उनमें बँगला से संबद्ध निम्नाकित कोशों के नाम उपलब्ध हैं—

(१) डिक्शनरी आव् बंगाली लैंग्वेज (सं० कैरे—१८२५ ई०)

(२) ए डिक्शनरी आव् बंगाली लैंग्वेज (सं० जाँन सी० मार्श- मैन—१८२७ ई०)

(३) बंगाली वीकैब्यूलरी (सं० एच्० पी० फास्टर—१७९९ ई०)

(४) बंगाली वीकैब्यूलरी (मोहनप्रसाद ठाकुर—१८१० ई०)

(५) डिक्शनरी आव् बंगाली लैग्वेज ( सं० डब्लू० मार्टन— १८२८ ई०)

(६१) ए डिक्शनरी आव् हंगाली ऐंड इंगलिश (सं० ताराचंद चक्रवर्ती—१८२७ ई०)।

(७) शब्दसिंधु (अमरकोश के संस्कृत शब्दों की आकारादिवर्णा- नुक्रामानुसार योजना तथा बँगला व्याख्या—१८०८ ई०)

ग्लासरी आँव जुडिशल ऐंड रेवेन्यू टर्म्स नामक जामसन के अंग्रेजी बँगला कोश का टाड संस्कारण १८३४ ई० में प्रकाशित हुआ एच्० एच्० विलसन का जो कोश १८५५ ई० में प्रकाशित हुआ उसमें अरबी फारसी, हिंदी, हिंदुस्तानी, उडिया, मराठी, गुजराती, तेलगू, कर्नाटकी (कनारी), मलायालम आदि के साथ साथ बँगला के शब्द भी थे । श्रीतारानाथ का शब्दस्तोममहानिधि भी अच्छा कोश कहा जाता है ।

मराठी कोश

मराठी भाषा में कोशनिर्माण की परंपरा संभवतः उस यादवकाल से प्रारंभ होती है जब महाराष्ट्री प्राकृत के अनंतर आधुनिक मराठी का स्वतंत्र भाषा के रूप में विकास हुआ और वह प्रौढ़ हो गई । उस युग में कुछ कोश बनाए गए थे । हेमाद्रि पंडितों द्वारा रचित अनेक कोशों का उल्लेख मिलता है । संत ज्ञानेश्वर ने अपनी कृति ज्ञानेश्वरी के क्लिष्ट शब्दों की—अकारादि क्रम से अनुक्रमणिका बनाते हुए उसी के साथ सरल मराठी में पर्याय शब्द दिए हैं । उसी के द्वारा मराठी से संबद्ध १२ वीं शती के उन कोशों का संकेत मिलता है जो आज अनुपलब्ध हैं । शिवाजी द्वारा भी उनके समय में 'राज-
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व्यवहार—कोश बना था जिसमें मराठी, फारसी और संस्कृत—तीनों भाषाओं की सहायता ली गई थी । रघुनाथ पंडितराव द्वारा ३८४ पद्यों का यह छंदोबद्ध कोश ऐसा त्रिभाषी कोश है जो अपने ढंग का विशेष कोश कहा जा सकता है । संस्कृत और फारसी के भी अर्थपर्यासूचक ऐसे कोश संस्कृत माध्यम से मुगल शासनकाल में बने थे ।

आगे चलकर पाश्चात्यों के संपर्क और प्रभाव से 'मराठी इंगलिश' के अनेक कोश बने । चीफ कैप्टन गोल्सवर्थ ने अंग्रेजी—मराठी का एक विशाल कोश १८३१ ई० में बनाया था । थामस कैंडी के सहयोग से उस कोशों के संशोधित और परिवर्धित अनेक संस्करण छपे । मराठी के इन कोशों की परंपरा १९ वीं शताब्दी के आरंभ से अबतक चली आ रही है । कोशों की दृष्टि से मराठी भाषा अत्यंत संपन्न है । अंग्रेजी कोशों में केरी, कर्नल केनेडी और गोल्सवर्थ कैडी के मराठी इंगलिश कोश महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं । इनके अतिरिक्त १९ वीं शती के कुछ प्रमुख मराठी कोश हैं—(१) महाराष्ट्र भाषे चा कोश ( इसके प्रथम भाग का प्रकाशन १८२९ ई० से प्रारंभ हो गया था); (२) रघुनाथ भास्कर गाडबोले का हंसकोश (१८६३ ई०); (३) बोडकर का रत्नकोश (१८६९ ई०) और (४) मराठी भाषा का नवीन कोश (१८९० ई०)। बीसवीं सदी के कोशों में—वा० गो० आप्टे का— मराठी शब्दरत्नाकर और विद्याधर का सरस्वती कोश आधिक प्रसिद्ध है । सामान्य शब्दार्थ कोशों के अतिरिक्त मराठी—व्युत्पत्तिकोश (कृष्णाजी पांडुरंगा कुलकर्णी—१९४६ ई०) अत्यंत प्रसिद्ध व्युत्पत्ति- कोश है । इसमें मराठी भाषा का पूर्ण प्रयोग हुआ है । मराठी में विश्वकोश लोकोक्तिकोश, वाक्संप्रदायकोश, (अनेक) ज्ञानकोश और शब्दार्थकोश है । गोविंदराव काले का एक पारिभाषिक शब्दकोश भी है जिसमें अंग्रेजी सैनिक शब्दों का शब्दार्थ संग्रह मिलता है । मराठी हिंदी कोश भी अनेक बने हैं । इनंमें कुछ उत्तम कोटि के भी कोश हैं ।

पंजाबी, काश्मोरी, नेपाली

लोदियन मिशन द्वारा १८५४ ई० में पंजाबी शब्दकोश बना था जिसमें गुरूमुखी और रोमन में मूल शब्द थे तथा अंग्रेजी में अर्थ था । इसके बाद पंजाबी कोशों का सिलसिला चलता है तथा पंजाबी के कोश बनने लगे ।

इधर २० वीं शती में भाई विशनदास पुरी के संपादकत्व में प्रकाशित (१९२२ ई०) और पंजाब सरकार के भाषा विभाग, पटियाला से प्रकाश्य- माना पंजाबी कोश अत्यंत महत्व के हैं । द्वितीय कोश कदाचित् पंजाबी का सर्वोत्तम कोश है ।

काश्मीरी भाषा के अपने मैनुअल में डा० ग्रियर्सन ने व्याकरण बनाया और फ्रजबुक के साथ सात शब्दकोश भी संपादित (१९३२ ई०) किया था । इसके मूलकर्ता ईश्वर कौल थे और संभवतः १८९० ई० के पूर्व इसकी रचना हो चुकी ती । इसका पूर्व भी १८८५ ई० में इस दिशा का कुछ कार्य हो चुका था । टर्नर की नैपाली डिक्शनरी यद्यपि बहुत बाद की है, तथापी उसमें कोशविज्ञान और भाषाविज्ञान का विनियोग जिस सहता के साथ हुआ है वह अत्यंत प्रशंसनीय है ।

उर्दू कोश

उन उर्दू के कोशों की चर्चा ऊपर हुई है जिन्हें विदेशियों ने बनाया । हिंदी या हिंदुस्तनी कोशों के साथ या इनका मिश्रित रूप ही प्रायः रहा । कभी कभी वे अलग भी थे । इनके पूर्व और बाद में बहुत से ऐसे कोश भी बने जो फारसी लिपि में निर्मित थे । इनमें फरहंगे अस- फिया, तख्मीस्सुल्लुगात, लुगात किसोरी अधिक महत्व के और प्रसिद्ध माने जाते हैं । तत्वतः इनमें हिंदी के शब्दों की संख्या बहुत ज्यादा है । पर लिपिभेद के कारण हिंदी मात्र जानेवाले इनका उपयोग और प्रयोग नहीं कर पाते । 'फरहंगे-ए-इस्तलाहात— वस्तुतः मौं० अब्दुलहक की योजना और प्रेरणा से रचित उर्दू का विशाल कोश है । इनके अतिरिक्त भी अमीर मीनाई का आमीरूल् लुगात तथा करीमुल्लुगात उर्दूकोशों में प्रसिद्ध हैं । श्रीरामचद्र वर्मा, श्रीहरिशंकर शर्मा आदि ने नागरी लिपि में भी कोश बनाए । उत्तर प्रदेश सरकार ने मद्दाह द्वारा संपादित उर्दू हिंदी कोश प्रकाशित किया है जिसे अच्छा कोश कहा जाता है ।

गुजराती, उडिया, और असमिया में भी अनेक आधुनिक कोश बन चुके हैं और निरंतर बनते जा रहे हैं । नवजीवन प्रकाशन मंदिर का सार्थ गुजराती मंउणी कोश, तता शापुरजी दरालजी का गुजराती इंग्रेजी कोश प्रसिद्ध हैं । असमिया में १८३७ ई० में ब्राउन्सन ( अमेरिकी मिशनरी) ने असमिया—इंग्लिश डिक्शनरी बनाई थी । हेमचंद्र बरूआ द्वारा निर्मित 'असमिया—अंग्रेजी कोश', विशेष प्रसिद्ध है । उडिया में भी ऐसे अनेक कोश बन चुके हैं । कहने का सारांश यह है कि भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में आधुनिक कोशों की प्रेरणा पाश्चात्यों से मिली और भारतीयों ने उस कार्य को निरंतर आगे बढाने में योगदान किया ।

आधुनिक कोस की विधाएँ :

आधुनिक कोशरचना के विविध प्रकारों की संक्षिप्त चर्चा यहाँ अनावश्यक न होगी । वर्तमान युग ने कोशविद्या को अत्यंत व्यापक परिवेश में विकसित किया । सामान्य रूप से उसकी दो मोटी मोटी विधाएँ कही जा सकती हैं—(१) शब्दकोश और (२) ज्ञानकोश । शब्दकोश के स्वरूप का बहुमुखी प्रवाह निरंतर प्रौढ़ता की ओर बढ़ता लक्षित होता राहा है । आज की कोशविद्या का विकसित स्वरूप भाषा विज्ञान, व्याकरणशास्त्र, साहित्य, अर्थविज्ञान, शब्दप्रयोगीय, ऐतिहासिक विकास, संदर्भसापेक्ष अर्थविकास और नाना शास्त्रों तथा विज्ञानों में प्रयुक्त विशिष्ट अर्थों के बौद्धिक और जागरूक शब्दार्थ संकलन का पुंजीकृत परिणाम है ।

शब्दकोश

हमारे परिचित भाषाओं के कोशों में आकसफोर्ड-इंग्लिश-डिक्शनरी के परिशीलन में उपर्युक्त समस्त प्रवृत्तियों का उत्कृष्ट निदर्शन देखा जा सकता है । उसमें शब्दों के सही उच्चारण का संकेत- चिह्नों से विशुद्ध और परिनिष्ठित बोध भी कराया है । योरप के उन्नत और समृद्ध देशों की प्रायः सभी भाषाओं में विकासित स्तर की कोशविद्या के आधार पर उत्कृष्ट, विशाल, प्रमाणिक और संपन्न कोशों का निर्माण हो चुका है और उन दोशों में कोशनिर्माण के लिये ऐसे स्थायी संस्थान प्रतिष्ठापित किए जा चुके हैं जिनमें अबाध गति से सर्वदा कार्य चलता
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रहता है । लब्धप्रतिष्ठा और बडे़ बडे़ विद्वानों का सहयोग तो उन संस्थानों को मिलता ही है, जागरूक जनता भी सहयोग देती है । अंग्रेजी डिक्शनरी तथा अन्य भाषाओं में निर्मित कोशकारों के रचना-विधान- मूलक वैशिष्टयों का अध्ययन करने से अद्यतन कोशों में निम्ननिर्दिष्ट बातों का अनुयोग आवश्यक लगता है—

(क) उच्चाणमसूचक संकेतचिह्नों के माध्यम से शब्दों के स्वरों व्यंजनों का पूर्णतः शुद्ध और परिनिष्ठित उच्चारण स्वरूप बताना और स्वराघात बलगात का निर्देश करते हुए यतासंभव उच्चार्य अंश के अक्षरों की बद्धता और अबद्धता का परिचय देना; (ख) व्याकरण संबंद्ध उपयोगी और आवश्यक निर्देश देना; (ग) शब्दों की इतिहास- संबंद्ध वैज्ञानिक—व्युत्पत्ति प्रदर्शित करना; (घ) परिवार—संबंद्ध अथवा परिवारमुक्त निकट या दूर के शब्दों के साथ शब्दरूप और अर्थरूप का तुलनात्मक पक्ष उपस्थित करना; (ङ) शब्दों के विभिन्न और पृथक्कृत नाना अर्थों को अधिक—न्यून प्रयोग क्रमानुसार सूचित करना; (च) अप्रयुक्त- शब्दो अथवा शब्दप्रयोगों की विलोपसूचना देना; (छ) शब्दों के पर्याय बताना; और (ज) संगत अर्थों के समर्थनार्थ उदाहरण देना; (झ) चित्रों, रेखाचित्रों, मानचित्रों आदि के द्वारा अर्थ को अधिक स्पष्ट करना । 'आधुनिक कोश की सीमा और स्वरूप' उपशीर्षक के अंतर्गत इन बातों की कुछ विस्तृत चर्चा की गई है ।

'आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी' का नव्यतम और बृहत्तम संस्करण आधुनिक कोशविद्या की प्रायः सभी विशैषताओं से संपन्न है । पर भारतीय भाषाओं के कोशों में अभी उपर्युक्त समस्त सामग्री का पुष्ट एकत्रीकरण नहीं हो पाया है । नागरीप्राचारिणी सभा के हिंदी शब्दसागर के अतिरिक्त हिंदी साहित्य संमेलन द्वारा प्रकाश्यमान मानक शब्दकोश (जिसके चार खंड प्रकाशित हो चुके हैं) एक विस्तृत आयास है । हिंदी कोशकला के लब्धप्रतिष्ठ संपादक श्रीरामचंद्र वर्मा के इस प्रशंसनीय कार्य का उपजीव्य भी मुख्यातः शब्दसागर ही है । उसका मूल कलेवर तात्विक रूप में शब्दसागर से ही अधिकांशतः परिकलित है । हिंदी के अन्य कोशों में भी अधिकांश सामग्री इसी कोश से ली गी है । थोडे बहुत मुख्यतः संस्कृत कोशों से और यदा कदा अन्यत्र से शब्दों और अर्थों को आवश्यक अनावश्यक रूप में ठूँस दिया गया है । ज्ञानमंडल के बृहद् हिंदी शब्दकोश में पेटेवाली प्रणाली शुरू की गई है । परंतु वह पद्धति संस्कृत के कोशों में जिनका निर्माण पश्चिमी विद्वानों के प्रयास से आरंभ हुआ था, सैकड़ो वर्ष पूर्व से प्रचलित हो गई थी । पर आज भी, नव्य या आधुनिक भारतीय भाषाओं के कोश उस स्तर तक नहीं पहुँच पाए हैं जहाँ तक आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी अथवा रूसी, अमेरिकन, जर्मन, इताली, फ्रांसीसी आदि भाषाओं के उत्कृष्ट और अत्यंत विकसित कोश पहुँच चुके हैं ।

कोशरचना की ऊपर वर्णित विधा को हम साधारणतः सामान्य भाषा शब्दकोश कह सकते हैं । इस प्रकार शब्दकोश एकभाषी, द्विभाषी, त्रिभाषी और बहुभाषी भी होते हैं । बहुभाषी शब्दकोशों में तुलनात्मक शब्दकोश भी यूरोपीय भाषाओं में ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषाविज्ञान की प्रौढ उपलब्धियों से प्रमाणीकृत रूप में निर्मित हो चुके हैं । इनमें मुख्य रूप से भाषावैज्ञानिक अनुशीलन और शोध के परिणामस्वरूप उपलब्ध सामग्री का नियोजन किया गया है । ऐसे तुलनात्मक कोश भी आज बन चुके हैं जिनमें प्राचीन भाषाओं की तुलना मिलती है । ऐसे भी कोश प्रकाशित हैं जिनमें एक से अधिक मुल परिवार की अनेक भाषाओं के शब्दों का तुलनात्मक परिशीलन किया गया है ।

शब्दकोशों के और भी नाना रूप आज विकसित हो चुके हैं और हो रहे हैं । वैज्ञानिक और शास्त्रीय विषयों के सामूहिक और तत्तद- विषयानुसारी शब्दकोश भी आज सबी समृद्ध भाषाओं में बनते जा रहे हैं । शास्त्रों और विज्ञानशाखाओं के परिभाषिक शब्दकोश भी निर्मित हो चुके हैं और हो रहे हैं । इन शब्दकोशों की रचना एक भाषा में भी होती है और दो या अनेक भाषाओं में भी । कुछ में केवल पर्याय शब्द रहते हैं और कुछ में व्याख्याएँ अथवा परिभाषाएँ भी दी जाती है । विज्ञान और तकनीकी या प्रविधिक विषयों से संबद्ध नाना पारिभाषिक शब्दकोशों मों व्याख्यात्मक परिभाषाओं तथा कभी कभी अन्य साधनों की सहायता से भी बिलकुल सही अर्थ का बोध कराया जाता है । दर्शन, भाषाविज्ञान, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान और समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि समस्त आधुनिक विद्याओं के कोश विश्व की विविध संपन्न भाषाओं में विशेषज्ञों की सहायता से बनाए जा रहे हैं और इस प्रकृति के सैकडों हजारों कोश भी बन चुके हैं । शब्दार्थकोश संबंधी प्रकृति के अतिरिक्त इनमें ज्ञानकोशात्मक तत्वों की विस्तृत या लघु व्याख्याएँ भी संमिश्रित रहती है । प्राचीन शास्त्रों और दर्शनों आदि के विशिष्ट एवं पारिभाषिक शब्दों के कोश भी बने हैं और बनाए जा रहे हैं । अनके अतिरिक्त एक एक ग्रथं के शब्दार्थ कोश (यथ मानस शब्दावली) और एक एक लेखक के साहित्य की शब्दावली भी योरप, अमेरिका और भारत आदि में संकलित हो रही है । इनमें उत्तम कोटि के कोशकारों ने ग्रंथसंदर्भों के संस्करणात्मक संकेत भी दिए हैं । अकारादि वर्णानुसारी अनुक्रमणि- कात्मक उन शब्दसूचियों का—जिनके अर्थ नहीं दिए जाते हैं पर संदर्भसंकेत रहता हैं—यहाँ उल्लेख आवश्यक नहीं है । योरप और इंगलैड में ऐसी शब्दसूचियाँ अनेक बनीं । शेक्सपियर द्वारा प्रयुक्त शब्दों की ऐसी अनुक्रमणिका परम प्रसिद्ध है । वैदिक शब्दों की और ऋक्संहिता में प्रयुक्त पदों की ऐसी शब्दसूचियों के अनेक संकलन पहले ही बन चुके हैं । व्याकरण महाभाष्य की भी एक एक ऐसी शब्दानुक्रमणिका प्रकाशित है । परंतु इनमें अर्थ न होने के कारण यहाँ उनका विवेचन नहीं किया जा रहा है ।

ज्ञानकोश

कोश की एक दूसरी विधा ज्ञानकोश भी विकसित हुई है । इसके बहत्तम और उत्कष्ट रूप को इन्साइक्लोपिडिया कहा गया है । हिंदी में इसके लिये विश्वकोश शब्द प्रयुक्त और गृहीत हो गया है । यह शब्द बँगाल विश्वकोशकार ने कदाचित् सर्वप्रथम बँगाल के ज्ञानकोश के लिये प्रयुक्त किया । उसका एक हिंदी संस्करण हिंदी विश्वकोश के नाम से नए सिरे से प्रकाशित हुआ । हिंदी में यह शब्द प्रयुक्त होने लगा है । यद्यपि हिंदी के प्रथम किशोरोपयोगी
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ज्ञानकोश (अपूर्ण) को श्री श्रीनारायण चतुर्वेदी तथा पं० कृष्ण वल्लभ द्विवेदि द्वारा विश्वभारति अभिधान दिया गया तो भी ज्ञान कोश, ज्ञानदीपिका, विश्वदर्शन, विश्वविद्यालयभंडार आदि संज्ञाओं का प्रयोग भी ज्ञानकोश के लिये हुआ है । स्वयं सरकार भी बालशिक्षोपयोगी ज्ञानकोशात्मक ग्रंथ का प्रकाशन 'ज्ञानसरोवर' नाम से कर रही है । परंतु इन्साइक्लोपीडिया के अनुवाद रूप में विवकोश शब्द ही प्रचलित हो गया । उडीया के एक विश्वकोश का नाम शब्दार्थानुवाद के अनुसार ज्ञान मंडल रखा भी गया । ऐसा लगता है कि बृहद् परिवेश के व्यापक ज्ञान का परिभाषिक और विशिष्ट शब्दों के माध्यम से ज्ञान देनेवाले ग्रथं का इन्साइक्लोपीडिया या विश्वकोश अभिधान निर्धारित हुआ और अपेक्षाकृत लघुतरकोशों को ज्ञानकोश आदि विभिन्न नाम दिए गए । अंग्रेजी आदि भाषाओं में बुक आफ नालेज, डिक्शनरी आव जनरल नालेज आदि शीर्षकों के अंतरेगत नाना प्रकार के छोटे बडे विश्वकोश अथवा ज्ञानकोश बने हैं और आज भी निरंतर प्रकाशित एवं विकसित होते जा रहे हैं । इतना ही नहीं इन्साइक्लोपीडिया आफ रिलीजन ऐंड एथिक्स आदि विषयविशेष से संबंद्ध विश्वकोशों की संख्या भी बहुत ही बडी है । अंग्रेजी भाषा के माध्यम से निर्मित अनेक सामान्य विश्वकोश और विशष विश्वकोश भी आज उपलब्ध हैं ।

इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, इन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना अंग्रेजी के ऐसे विश्वकोश हैं। अंग्रेजी के सामान्य विश्वकोशों द्वारा इनकी प्रमाणिकता और संमान्यता सर्वस्वीकृत है । निरंतर इनके संशोधित, संवर्धित तथा परिष्कृत संस्करण निकलते रहते हैं । इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के दो परिशिष्ट ग्रंथ भी हैं जो प्रकाशित होते रहते हैं और जो नूतन संस्करण की सामग्री के रूप में सातत्य भाव से संकलित होते रहते हैं । इंगलैंड में इन्साइक्लोपीडिया के पहले से ही ज्ञानकोशात्मक कोशों के नाना रूप बनने लगे थे ।

ज्ञानकोशों के भी इतने अधिक प्रकार और पद्धतियाँ हैं जिनकी चर्चा का यहाँ अवसर नहीं है । चरितकोश, कथाकोश इतिहासकोश, ऐतिहासिक कालकोश, जीवनचरितकोश पुराख्यानकोश, पौराणिक- ख्यातपुरुषकोश आदि आदि प्रकार के विविध नामरूपात्मक ज्ञानकोशों की बहुत सी विधाएँ विकसित और प्रचलित हो चुकी हैं । यहाँ प्रसंगतः ज्ञानकोशों का संकेतात्मक नामनिर्देश मात्र कर दिया जा रहा है । हम इस प्रसंग को यहीं समाप्त करते हैं और शब्दर्थकोश से संबंद्ध प्रकृत विषय की चर्चा पर लौट आते हैं ।

हिंदी कोशों की सीमा और उनके रूप

अद्यतन शब्दकोशों की विशेषताओं और उनकी विभिन्न विधाओं की चर्चा अन्यत्र हुई है । आज के कोशों में भाषावैज्ञानिक, व्याकरणिक और भाषा के ऐतिहासिक शब्दरूपों और अर्थरूपों से संबद्ध व्युत्पत्ति- निर्देश और अर्थ—विकास— क्रम—का कोश में समावेश उसका अत्यंत अनिर्वाय अंग हो गया है, यह अन्यत्र कहा गया है । भाषा के शब्दों का भाषावाङमय में आद्य प्रयोग औक क्रमशः तत्परवर्ती प्रयोगों के उदाहरण भी आवश्यक होते हैं । व्युत्पत्तिलभ्य यौगिक और रूढ़—नाना अर्थों के भी सोदाहरण निर्देश—कोश की प्रमाणिकता सूचित करने के लिये समाविष्ट किए जाते हैं । एक शब्द के शब्दार्थबोध की प्रयोगसीमा में आनेवाले सूक्ष्म अर्थों की नाना अर्थच्छायाओं का पार्थक्य और विस्तार भी सोदाहरण उपस्थित किया जाता है । शब्द के नाना अर्थों और आवश्यक उदाहरणों द्वारा तत्तदर्थबोधकता का समर्थन भी कोश में रहता है । आवश्यक व्याख्याएँ दी जाती हैं । इन सबके अतिरिक्त आधुनिक प्रयोगों के नव्यतम अर्थों का निर्देश किए बिना कोश पूर्ण और अद्यतन नहीं होता ।

शब्दार्थकोशों का पूर्ण और नूतनतम रूप ऐसे कोश को ही कहा जा सकता है । परंतु ऐसे कोश संपन्न और विकसित देशों की साधना द्वारा ही बन पाता है । इनके अतिरिक्त छोटे बडे़ अनेक ऐसे साधारण कोश भी हैं जो पूर्ण साधनों के अभाव में समस्त वैशिष्टि्यों से संपन्न न होकर भी व्यावहारिक उपयोग के लिये लिये बनाए जाते हैं और यथासंभव और यथाशक्ति या आंशिक रूप में उत्कृष्ट कोशों की घटक सामग्रियों से सहायता लेते हैं । सभवतः भारत के अधिकांश बडे़ कोश भी शब्दार्थकोशों की अद्यतनतम पूर्णता से अभी दूर ही हैं । हिंदी के शब्दार्थकोशों में शब्द और अर्थ के प्रयोग और विकाससंबंधी प्रमाणिक उदाहरणों द्वारा ऐतिहासिक क्रम का नियोजन अभी नहीं हो पाया है । इनके अतिरिक्त शब्दों के उच्चारण- संबंधी यथार्थ निर्देश की कमी प्रायः सभी छोटे बडे हिंदी कोशों में वर्तमान है । प्रचिन राजस्थानी, पिंगल, डिंगल, प्राचीन और मध्यकालीन ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और दक्खिनी हिंदी, खडी बोली तथा हिंदीं प्रदेश के विस्तृत क्षेत्र में प्रचलित आधुनिक परिनिष्ठित हिंदी के उच्चारणों का निर्देश अत्यंत आवश्यक है । हिंदी पढ़नेवाले हिंदीतर भाषाभाषियों के लिये उच्चारणनिर्देश बिना शुद्ध और सही उच्चारण करना नितांत कठिन हो जाता है । पर अबतक के बृहत् हिंदी कोशों में, यहाँ तक कि इस हिंदी शब्दसागर के नवीन संस्करण में उच्चारणनिर्देश की योजना कार्यान्वित नहीं हो सकी ।

इसके अतिरिक्त एक और बडी भारी कमी हिंदी कोशों में रह गई है । उसका संबंध ऊपर निर्दिष्ट शब्दप्रयोगों के ऐतिहासिक क्रमनिर्देश से है । भाषा में अनेक शब्द ऐसे भी मिलते हैं जिनका पहले तो प्रयोग होता था पर कालपरंपरा में उनका प्रयोग लुप्त हो गया । आज के उत्कृष्ट कोशों में यह भी दिखाया जाता है कि कब उनका प्रयोग आरंभ हुआ और कब उनका लोप हुआ । पर हिंदी कोशों में इसका अभाव है । नागरीप्रचारिणी सभा का यह कोश इस दिशा में थोड़ा प्रयत्नशील है । व्यवहारलुप्त शब्दों के आरंभ और समाप्ति के प्रयोगसंपृक्त ऐतिहासिक क्रम को सूचित किए बिना भी पुरातन-प्रयोग-संबंधी संकेत- बोधक चिह्न के द्वारा लप्तप्रयोग शब्दों का निर्देश कर दिया गया है ।

इन सब कमियों के दूर करने की ओर कोशनिर्माण में प्रवृत्त संस्थाओं और व्यक्तियों के विचार काम कर रहे हैं । पर अभी साधानाभाव के कारण प्रगति संतोषजनक नहीं है ।

व्यवहारिक उपयोगिता की दृष्टि से सामान्य पाठकों के लिये बने हुए सामान्य कोशों के अतिरिक्त हिंदी में कुछ कोश और हैं जिन्हें हम शब्दर्थकोश मात्र कहते हैं । इनमें व्याकरणसंबंद्ध निर्देश औेर
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प्रचलित अर्थमात्र दिए गए हैं । हिंदी में एकाध पर्यायवाची कोश भी बनाए गए हैं । विशिष्ट विषयों के पारिभाषिक शब्दों के अर्थकोश भारत की अनेक भाषाओं और हिंदी में भी बन रहे हैं । इनमें बहुत से ऐसे कोश हैं जो ज्ञानकोश की सीमा के अंतर्गत आ जाते हैं । इनमें विस्तृत व्याख्या और कभी कभी ऐतिहासिक परिचय भी रहता है । परंतु कुछ कोश शब्दार्थ मात्र का बोध कराते हैं कभी पर्यायों द्वारा और कभी संक्षिप्त व्याख्या द्वारा । इस विधा को हम विषय शब्दकोश कह सकते हैं । इनके अतिरिक्त जैसा ऊपर संकेत किया गया है, विभिन्न कवियों लेखकों के ग्रंथों अथवा विशिष्ट ग्रंथों के भी कोश अर्थसहित बनाए जाते हैं । प्रथम प्रकार के कोशों में हिंदी के सूर ब्रजभाषा कोश( डा. टंडन), प्रसाद काव्यकोश (श्रीसुधाकर पांडेय) आदि को रखा जा सकता है और द्वितीय कोटि में मानस शब्द कोश आदि को । बडे शब्दार्थ कोशों में कभी कभी विश्वकोश य पद्धति का अनुसरण करते हुए ऐतिहासिक और विवरणात्मक, परिचय भी स्थान स्थान पर दे दिया जाता है । शब्दकल्पद्रुम, वाचस्पत्य, हिंदी शब्दसागर आदि इसी प्रकार के शब्दकोश हैं । वेब्स्टर की न्यू इंगलिश डिक्शनरी भी इसी प्रकार का शब्दकोश है जिसमें विश्व कोशीय पद्धति की रचनाशैली बहुत दूर तक अंतनियोजित है । यहाँ यह संकेत भी कर देना अनुचित न होगा कि हिंदी के शब्दार्थ कोशों में योगिक,सामासिक शब्दों और लोकोक्तियों, मुहावरों आदि का भी उसी प्रकार अंतयोंग लक्षित होता है जिस प्रकार संस्कृत कोशों अथवा अंग्रेजी कोशों में । क्रियाप्रयोग भी हिंदी शब्दसागर में दिखाए गए है । यहाँ अथवा सामान्य कोशो मे लोकोक्तियों और मुहावरों का अर्थबोध या क्रियाप्रयोग शब्दविशेष के अंतर्गत दिखाया गया है । परंतु कुछ कोश ऐसे भी बने हैं जो केवल लोकोक्तिकोश या मुहावराकोश कहे जाते हैं ।

सामान्य शब्दार्थकोश एकभाषी या अनेकभाषी होते हैं । एकभाषी कोशों में व्याख्यात्मक अर्थकोश होते हैं, पर्यायवाची कोश होते हैं और कभी कभी विपर्यायवाची कोश भी मिल जाते हैं । कहने का तात्पर्य यह कि शब्दकोशों की अनेक विधाएँ विकसित हो रही हैं और उनके अनुसार अनेक प्रकार के छोटे बडे कोश निर्मित होते जा रहे हैं । शब्दानुक्रमणिकाओं को जो मात्रशब्दों की अर्थरहित सूचियाँ होती हैं, छोड देने पर भी अनेक ग्रंथ के साथ सार्थक शब्दानुक्रमणिकाएँ भी मिलती हैं । इन्हें हम ग्रंथविशेष के क्लिष्ट या विरल पदों का शब्दकोश कह सकते हैं ।

आधुनिक कोशविद्या : तुलनात्मक दृष्टा

मध्यकालीन हिंदी कोशों की मान्यत और रचनाप्रक्रिया से भिन्न उद्देश्यों को लेकर भारत में कोशविद्या के आधुनिक स्वुरुप का उद्रव और विकास हुआ । पाश्चात्य कोशों के आदर्श, मान्यताएँ, उद्देश्य, रचनाप्रक्रिया और सीमा के नूतन और परिवर्तित आयामों का प्रवेश भारत की कोश रचनापद्धति में आरंभ हुआ । संस्कृत और इतन भारतीय भाषाओं में पाश्चात्य तथा भारतीय विद्वानों के प्रयास से छोटे बडे बहुत से कोश निर्मित हुए । इन कोशों का भारत और भारत के बाहर भी निर्माण हुआ । आरंभ में भारतीय भाषाओं के मुख्यतः संस्कृत के, कोश अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच आदि भाषाओं के माध्यम से बनाए गए । इनमें संस्कृत आदि के शब्द भी रोंमन लिपि में रखे गए । शब्दार्थ की व्याख्या और अर्थ आदि के निर्देश कोश की भाषा के अनुसार जर्मन, अंग्रेजी, फारसी पुर्तगाली आदि भाषाओं में दिए गए । बँगला, तमिल आदि भाषाओं के ऐसे अनके काशों की रचना ईसाई धर्मप्रचारकों द्वारा भारत और आसपास के लघु द्वीपों में हुई । हिंदी के भी ऐसे अनेक कोश बने । इनकी चर्चा की जा चुकी है । प्रथम संस्करण की भूमिका में पृष्ठ १-२ पर हिंदी के आधुनिक कोशों की आरंभिक रचना का निर्देश किया गाया है । सबसे पहला शब्दकोश संभवतः फरग्युमन का 'हिंदुस्तानी अंग्रेजी' (अंग्रेजी हिंदुस्तानी) कोश था जो १७७३ ई० में लंदन में प्रकाशित हुआ । इन आरंभिक कोशों को हिंदुस्तानी कोश कहा गया । ये कोश भुख्यत हिंदी के ही थे । पाश्चात्य विद्वानों के इन कोशों में हिंदी को हिंदुस्तानी कहने का कदाचित् यह कारण है कि हिंदुस्तान भारत का नाम माना गया, और वहाँ की भाषा हिंदुस्तानी कही गई । कोशविद्या के इन पाश्चात्य पंडितों की दृष्टि में हिंदी का ही पर्याय हिंदुस्तानी था और वही सामान्य रुप में हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा थी । पश्चिम में विकसित नूतन पद्धति पर बने हुए संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कोशों और उनकी उपलब्धियों के वैशिष्टय का रुपरेखात्मक परिचय दिया जा चुका है ।

भारत की आदिमध्यकालीन कोशविद्या के ऐतिहासिक विकास की रुपरेखा से स्पष्ट हो चुका है कि आरंभिक क्रम में कोशनिर्माण की प्रेरणात्मक चेतना का बहुत कुछ सामान्य रुप भारत और पश्चिम में मिलता जुलता था । भारत का वैदिक निघंटु विरल और क्लिष्ट शब्दों के अर्थ और पर्यायों का संक्षिप्त संग्रह था । योरप में भी ग्लासेरिया से जिस कोशविद्या का आरंभिक बीजवपन हुआ था, उसके मूल में भई विरल और क्लिष्ट शब्दों का पर्याय द्वारा अर्थबोध कराना ही उद्देश्य था । लातिन की उक्त शब्दार्थसूची से शनैः शनैः पश्चिम की आधुनिक कोशविद्या के वैकासिक सोपान आविर्भूत हुए । भारत और पश्चिम दोनों ही स्थानों में शब्दों के सकलन में वर्गपद्धति का कोई न कोई रुप मिल जाता है । पर आगे चलकर नव्य कोशों का पूर्वोंक्त प्राचीन और मध्यकालीन कोशों से जो सर्वप्रथम और प्रमुखतम भेदक वैशिष्टय प्रकट हुआ वह था वर्णमालाक्रमानुसारी शब्दयोजना की पद्धति ।

इसके अतिरिक्त आधुनिक और पाश्चात्य कोशों की अन्य भेदकताएँ मुख्यतः निम्ननिर्दिष्ट हो सकती हैं—

(१) योरप में विशेष रुप से और भारत में आंशिक रुप से— आदिमध्यकालीन कोशकर्म में कठिन शब्दों का सरम शब्दों या पर्यायों द्वारा अर्थज्ञापन होता था । योरप में सामान्यतः एक पर्याय दे दिया जाता था और भारत में वैदिक निघंटुकाल से ही पर्यायशब्दों का अर्थबोधकपरक एकत्रीकरण होता था । इनमें दुर्बोंध्य और कठिन शब्दों के संग्रह की मुख्य प्रेरणा थी । भारतीय कोशों में बहुपर्याय संग्रह के
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कारण अनेक क्लिष्ट शब्दों के साथ पर्यायवाची कोशों में सरल शब्द भी समाविष्ट रहते थे । निघंटु का शब्दसंकलन भई वैदिक वाड़्मय के समग्र शब्दनिधि का संग्रह न होकर अधिकत: दुर्बोध्य और विवेच्य शब्दों की संकलन प्रेरणा से प्रभावित है ।

(२) भारत के प्राचीन कोश पर्यायवाची या समानार्थक थे । आरंभिक अवस्था में नानार्थक शब्दों इनमें परिशिष्ट जुड़ा रहता था । आगे चलकर नानार्थक या अनेकार्थ शब्दलिपि का विस्तार से आकलन होने लगा । फलत: संस्कृत के अनेक नानार्थ कोशों में मुख्यत: नामसंग्रह होता था और आगे चलकर लिगनीर्दोश भी होने लगा । पर्यायवाची कोशों की संग्रयोजना वर्गपरक हो गई थी । नानार्थ शब्दों की क्रम योजना में अंत्य व्यंजनाक्षर का क्रम ( मूलत:) अपनाया गया । पर कभी कभई आदिवर्ण का आधार लेकर वर्णमालानसरी शब्द-क्रमयोजना का प्रयास भी किया गया । पर दूसरी ओर आधुनिक कोशों में लघु कोशोंके अतिरित्क पर्याय के साथ साथ अर्थबोधक व्याख्याएँ भी दी जाती है । संस्कृत में यह नहीं था । टीकाएँ अवश्य यह कार्य करती थीं । संस्कृत के समानार्थक कोशों की भाँति आधुनिक कोशों में पर्याय रखने पर आधिक बल देने चेष्टा नहीं होती । कभी कभी अवश्य ही संस्कृत कोशों के प्रभाव से हिदी आदि में भी पर्ययवाची कोश बन जाते हैं । पर वस्तुत: ये कोश संस्कृत कोशों के अंवशेषमात्र है, आधुनिक कोश नहीं ।

(३) संस्कृत के प्रचीन कोशों में मुख्यत: नामपदों, अव्ययशब्दों तथा कभई कभी धातुओं का भई संग्रह होता था । व्याकरण- प्रभावित संग्रहदृष्टि का मूल कदाचित् पाणिनि के धातुपाठ और गणपाठों में दिखाई पड़ता है । आरंभ में, अमरकाल और उसके बाद, संस्कृत का मुख्य रूप नामलिगानुशासनात्मक हो गया । आधुनिक कोशों में रचनाविधान की भिन्नता के कारण इसे अनुपयोगी मानकर सर्वथा त्याग दिया गया । परंतु व्याकरणमूलक ज्ञान और प्रयोग के लिये उपयोगी निर्देश प्रत्येक के साथ लघुसंकेतों द्वारा निदिष्ट होते हैं ।

(४) आज के शब्दकोशों का निर्माण उन समस्त जनों के लिये होता है जो तत्तद्भाषाओं के सरल या कठिन किसी भी शब्द का अर्थ जानना चाहते है । संस्कृत कोशों का मुख्य रूप पद्यात्मक होता था । इस कारण उसका अधिकत: उपयोग वे ही कर पाते थे जो कोशपद्यों को कंठस्य कर रखते थे । प्रयोग और अर्थज्ञान के साथ साथ कोशों को कंठस्थ करना भी एक उद्देश्य समझा जाता था पर आज के नवीन कोशों का यह प्रयोजन बिल्कुल ही नहीं हैं ।

(५) संस्कृत के प्राचीन कोशों का प्रयोजन होता था कवियों, साहित्यनिर्मताओं और काव्यशास्त्रादि के पाठकों के शब्दभंड़ार की वृद्धि करना । परंतु आधुनिक कोशो का मुख्य प्रयोजन है शब्दों के अर्थ का ज्ञान और तत्संबंधी अन्त बातों की जानकारी देते हुए उनके समीचीन प्रयोग की शत्कि बढ़ाना ।

(६) इनेक अतिरित्क शब्दोच्चारण, व्युत्पत्तिसूचन, शब्दप्रय़ोग का प्रथम और यदि कोई शब्द लुप्तप्रयोग हो गया हो तो उसका सप्रमाण ऐतिहासिक वर्णन, नाना अर्थो का समान्य एबं विशेष संदर्भ- संयुत्क विवित्क विवरण, यौगिक एवं मुहावरों के शब्दयोगों तथा धातुयोगों आदि के अर्थवैशिष्ट्य का सोदाहरण निरूपण भी आधुनिक कोशों में रहता है । यह सब प्राचीन कोशों में नहीं था । कोशटीकाओं में अवश्य इनमें से अनेक बार्ते अंशत: और प्रसंगत: निदिष्ट कर दी जाती थीं ।

आधुनिक कोश: सीमा और स्वरूप

योरप में आधुनिक कोशों का जो स्वरबूप विकसित हुआ, उसकी रूपरेखा का संकेत किया जा चुका है । योरप, एशिया और अफ्रिका के उस तटभाग में जो अरब देशों के प्रभाव में आया था, उत्क पद्धति के अनुकरण पर कोशों का निर्माण होने लगा था । भारत में व्यापक पैमाने पर जिस रूप कोश निर्मत होते चले, उनकी संक्षिप्त चर्चा की जा चुकी है । इन सबके आधार पर उत्तम कोटि के आधुनिक कोर्शो की विशिषिटताओं का आकलन करते हुए कहा जा सकता है:

(क) आधिनिक कोशों में शब्दप्रयोग के ऐतिहाससिक क्रम की सरणि दिखाने के प्रयास को बहुत महत्व दिया गया है । ऐसे कोर्शो को ऐतिहासिक विवरणात्मक कहा जा सकता है । उपलब्ध प्रथम प्रयोग और प्रयोगसंदर्भ का आधार लेकर अर्थ और उनके एकमुखी या बहुमुखी विकास के सप्रमाण उपस्थापन की चेष्टा की जाती है। दूसरे शब्दों में इसे हम शब्दप्रयोग और तद्बोध्यार्थ के रूप की आनुक्रमिक या इतिहासानुसारी विवेचना कह सकते है । इसमें उद्वरणों का उपयोग दोनों ही बातों ( शब्दप्रयोग और अर्थविकास) की प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं ।

(ख) आधुनिक कोशकार के द्वार संगृहीत शब्दों और अर्थों के आधार का प्रामाण्य भई अपेक्षित होता है । प्राचीन कोशकार इसके लिये बाध्य नहीं था । वह स्वत: प्रमाण समझा जाता था । पूर्व तंत्रों या ग्रंथों का समाहार करते हुए यदाकदा इतना भी कह देना उसके लिये बहुधा पर्याप्त हो जाता था । पर आधुनिक कोशों में ऐसे शब्दों के संबंध में जिनका साहित्य व्यवहार में प्रयोग नहीं मिलता, यह बताना भी आवश्यक हो जाता है कि अमुक शब्द या अर्थ कोशीय मात्र हैं ।

(ग) आधुनिक कोशों की एक दुसरी नई धारा ज्ञानकोशात्मक है जिनकी उत्कृष्ट रबप विश्वकोश के नाम से सामने आता है । अन्य रूप पारिभाषिक शब्दकोश, विषयकोश, चरितकोश, ज्ञानकोश, अब्दकोश आदि नाना रूपों में अपने आभोग का विस्तार करते चल रहै हैं ।

(घ) आधुनिक शब्दकोशों मे अर्थ की स्पष्टता के लिये चित्र, रेखा- चित्न, मानचित्र आदि का उपयोग भी किया जाता है ।

(ङ) विशुद्ध शस्त्रीय वाङमय (शस्त्र) के प्राचीन स्तर से हटकर आज के कोश वैज्ञानिक अथवा विज्ञानकल्प रचनाप्रक्रिया के स्तर पर पहुँच गए । ये कोश रूपविकास ऐर अर्थविकास की ऐतिहासिक प्रमाणिकता के साथ साथ भाषवैज्ञानिक सिद्धांत की संगति ढूँढने का पूर्ण प्रयत्न करते हैं । आधुनिक भाषाओं के तद्भव, देशी और विदेशी शब्दों के मूल और स्त्रोत ढ़ूँढने की चेष्टा की जाती है । कभी कभी
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पाचीन भाष या भाषाओ के मूलस्त्रोतों की गवेषण के व्युत्पत्ति- दर्शन के सदर्भ में महत्वपूर्ण प्रयास होता है । बहुभाषी पर्यायकीशों में एतिहासिक ऐर तुलना मक भआषाविज्ञान के सहयोग सहायता द्वारा स्त्रोतभाष के कल्पनानिदिप्ट रूप अंगीकृत होते हैं । उदाहरणर्थ प्रचीन भारत योरोपी— आर्यभाषा के बहुभाषी तुलनात्मक कोशों में मूल आर्यभाषा ( या आयोँ के ' फादर लैग्वेज') के कलिपत मृलख्वपो वा अनुमान किया जाता है । दसरे शबदो में इसका तात्पर्य यह है कि आधुनिक उत्कृष्ट कोशों में जहां एक ओर प्राचीन और पूर्ववर्ती वाङ् मय का शब्दप्रयोग के त्रमिक ज्ञान के लिये ऐतिहासिक अध्ययन होता है वहां भाषाविज्ञान के ऐतिहासिक, तुलनात्मक और वर्णनात्मक दुष्टिपक्षओं का प्रौढ़ सहयोग और विनियोग अपेक्षइत रहता है । कोशविज्ञान की नूतन रचानाप्रत्रिया आज के युग में भाषाविज्ञान के नाना श्रंगों से बहुत ही प्रभावित हो गई है । इस प्रभाव की दूर गामी व्याप्ति का नीच की पंत्कियों मनें सक्षेपत: सकेत किया जा रहा है ।

कोशारचना को प्रक्रिया और भाषाविज्ञान

कोशनिर्माण का शब्दसंकलन सर्वप्रमुख आधार है । परन्तु शब्दों के संग्रह का कार्य अत्यत कठिन है । मुख्य रूप में शब्दों का चयन दो स्त्रोतों से होता है —(१) लिखित साहित्य से और (२) लोकव्यवहार और लोकसाहित्य से । लिखित साहित्य से सग्रह्य शब्दों के लिये हस्तलिखित और मुद्रित ग्रंथो का सहारा लिया जाता है । परंतु इसके अंतर्गत प्राचीन हस्तलेखों और मुद्रित — ग्रथो के आधार पर जब शब्दसंकलन होता है तब उभयविध आधारग्रंथों की प्रामाणिकता और पाठशुद्धि आवश्यक होती है । इनके बिमा गृहीत शब्दों का महत्व कम हो जाता है और उनसे भ्रमसृष्टि की संभावना बढ़ती है ।

हिंदीकोश में शब्दसंकलन: शुद्धपाठ

मुद्रित या हस्तलिखित ग्रंथों से शब्दसंकलन होता है उसमें पाठ की शुद्धि नितांत अपेक्षित है । ऐतिहासिक दृष्टि से उनका महत्व तभी स्थापित हो सकता है जब पाठालाचन विज्ञान के अनुसार ग्रथ के आलोचनात्मक ( क्रिटिबल) सरकरण सपादित हों और उनके माध्यम से प्राचीनतम शुद्ध पाठ उपलब्ध हो । शुद्ध और मूल पाठ तभी निर्धारित हो सकता है जब यह ज्ञान हो कि भाषा में प्रयुत्क कौन से शब्द का कब क्या था और उसके अथविकास का क्या क्रम था?

पूना से प्रकाशिष्यमाण संस्कृत कोश के आधारित ग्रंथों के ऐसे समालोचित पाछ का निधारणं किया जा रहा है जो पाठालोचन के वैज्ञानिक सिद्धातों से विवेचित हो । प्रसंगवश यहाँ इतना कह देना आवश्यक है कि हिदी में आदि और मध्य कालो के हिदी ग्रंथों के ऐसे संस्र्करण अत्यंत दुर्लभ है जिनके पाठों का संपादन पाठालोचनविज्ञान के आधारग पर हुआ हा रामचरितमानस के पाठ लोचन की चेष्टा कुछ अधिक हुई हैं, और उसके अपेक्षाकृत कुछ अच्छे संस्करण प्रकाशित हुइ और हो रहे हैं । परतु सहत्वपूर्ण साहित्यिक ग्रंथ अभी जिस रूप में उपलब्ध है, उनमें पाठलोचनविज्ञान की संपादनपद्घति का प्राय: अभाव है । पृथ्वीराज सागर, कबीर साहित्य आदि के पुर्णत: संतोषदायक संस्करण अनुपलब्ध हैं । शुद्ध पाठ तो अप्राप्य है ही । तत्तद् ग्रंथी में कितना क्षेपक है एवं कितना मूल है, इसका असंदिग्ध प्रमाण भी अनुपलब्ध है । ' रासो' जैसे महाग्रंथ के प्रामाणिक और मूल रूप का प्रश्न अत्यंत विवादास्पद है । उसे जली ग्रंथ भी कह दिया जाता है और उसके निर्माणकाल का भि निर्धारण अभी नहीं हो पाया है । ऐसी स्थिति में प्रकाशित ग्रंथों के आधार पर संकलित शब्दसमूह और उनके प्रयोग का इतिहास विवादास्पद और प्रमाणहीन रह जाता है ।

हस्तलेखों में शुद्ध पाठ की प्राप्ति स्वत: दु:साध्य कार्य है । इसके आतिरित्क उनसे हिदी कोशाकारों का शब्दसंग्रह करना और भी दुष्कर है । अपेक्षित आर्थिक साधन के अभाव में अप्रकाशित हस्तलेखों से शब्द संग्रह करना प्राय: उपेक्षत ही रहा है । कहने का तात्पपर्य केवल यह कि हिदी कोश के पूर्ण विकसित स्वरूप का निर्माण आज की परिस्थिति में भी असंभवप्राय जान पड़ता है ।

कोश के लिये संकलित शब्दसमूह के आधार ऐस शब्द होते है जो आलोचनात्मक और वैज्ञानिक पद्धति से विवेचित एवं शुद्ध पाठवाले सस्करणों से संगृहीत हों । भाषाविज्ञान के ऐतिहासिक ओर तुलनात्मक दृष्टियों से पाठविज्ञान का घनिष्ट संबंध है । शब्दरूप और तद्बोध्य अर्थ का निर्णयात्मक स्वरूप भी भाषाविज्ञान की दृष्टि की— बहुत दुर तक — अपेक्षा करता है ।

लोकभआषा से शब्दसंकलन

व्यावहारिक लोकभाष से शब्दसंग्रह करना श्रमसाध्य कार्य अवशय़्य है परंतु असभव नही है । इनके रूप का स्त्रोत ढूँढ़ने और अर्थ- विकास की श्रृखला निर्धरित करने में भाषाविज्ञान की अत्याधिक सहायता अपेक्षित होती है ।

लोकसाहित्य का आज एक स्वतंत्र अध्ययनक्षेत्र लोक-साहित्य- विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है । परंरागत लोकगीतों में लोक- साहित्य का काफी पुराना अंश चला आ रहा है । लोककथाओं आदि के पद्यात्मक रूपों में की परंपरा सुरक्षित मिल जाती है । परंतु प्राचीन बोलियों से गद्यरूप काफी दुर हो जाता है । लोकबोलियों सो एक ओर तो तत्तद् बोलियों के शब्दकोशं का नीर्माण करने में शब्दों का संकलन सहायक होता है, दूसरी ओर शब्द के रूपविकास और अर्थविकास की कड़ी के रूप में भी उनकी उपयोगिता होती है । हिदी के कोशों में ते बोलियों के बहुत से शब्दों का संकलन और भी आवश्यक हो जाता है । मध्यकालीन हिदी के अंतर्गत राजस्थानी, व्रजभाष, दक्खिनी र्हिदी, सधुक्कड़ी, बुंदेली, अवधी, बिहारी मैथिली, उर्दू आदि अनेक प्रंतीय या क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के ग्रंथ समाविष्ट किए गए है । भाषावैज्ञानिक दृष्टि से वाक्यगठन के आधार पर पूर्वो और पश्चिमी हिदी की भाषाओं और बोलियों में स्पष्ट अंतर होने पर भी, साहित्यिक दृष्टि से, विशाल हिदी क्षेत्र की भाषा, विभाषाओ और बोलियों के शब्दरूपों और बोध्याथों का आकलन और संकलन हिदी कोशों में अनिवार्य हो जाता है । रूपविकास अर्थविकास की ऐतिहासिक और तुलनात्मक प्रतिपति के लिये बोलियों के शब्दों का संकलन भी हिदी और इस श्रेणी की अन्य भाषाओं के कोशों में बहुत सहायक होता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि बोलियों और लोकसाहित्य के
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ग्रथों के प्रकाशित वाङमय की अल्पता के कारण कोशकार की चेष्टा पूर्ण सफल नहीं यहो पाती है । साहित्यिक भाषा के शुद्ध और ज्ञान और अर्थबोधन में लोक — साहित्य — विज्ञान का सहयोग अत्यंत लाभकर होता है । लोकसाहित्य— विज्ञान का पूर्ण उत्कर्ष तभी हो पाता हौ जब उसकी अनुशीलना में समाजशास्त्र, संस्कृतिविज्ञान्, पुराणविज्ञान और भाषाविज्ञान के साहाय्य से विवेचन हो ।

व्युत्पत्ति (निरूवित)

यह अन्यत्र कहा जा चुका हैकि वर्तमान शब्दों अथवा कोश में संगृहीत शब्दरूपों का विकासक्रम और मल शब्द. से सबंध से बताने में व्युत्पत्ति विज्ञान अत्य़धिक सहायक होता है । कहने की आवश्यकता नहीं । कि इसका घनिष्ठा संबंध भाषाविज्ञान से है । ध्वनिविज्ञान ध्वनि- विकास-विज्ञान, ध्वनि-तत्व-विज्ञान, पद-रचना-विज्ञान और अर्थविज्ञान आदि के द्वारा व्युत्पत्तिनिर्देश का वैज्ञानिक पक्ष पुष्ट होता है ।

कोशाकार शब्दों के जिन मानीकृत ( मानक अथवा स्टैडर्ड) रूपों का संग्रह करता है उसके निर्धारण का कार्य भाषाविज्ञान की सहायता से होता है । वैकल्पिक रूपों के परिचयन में भी भाषाविज्ञान और तदंगभूत व्याकरणशास्त्र अत्यंत सहायक होते हैं । कोशरचना में वह प्रत्यक्ष सहायता देता है । एक ही शब्दरूप प्रयोगगत अर्थबोध की भिन्नता के कारण विशेषण और संज्ञा आदि के व्याकरणिक भेद का परिचय देता है । अत: कोश के प्रयोग की अर्थकारिता के प्रभाव से शब्दभेद का निर्धारण व्याकरण से उपजीवित होता है ।

उच्चारणस्वरूप

मानीकृत कोश में संगृहीत शब्द के उच्चारणरूप की चर्चा हुइ है । आधुनिक कोशें में शब्द के उच्चारणरूप की सही जानकारी कराना अत्यंत आवश्यक समझा जाता है । इसके अंतर्ग ध्वनियों के सही सही उच्चारण में भाषाविज्ञान के एक अंग ध्वनिग्रामविज्ञान— द्वार बड़ी सहायता मिलती है । नूतन उच्चारणसंकेतों के माध्यम से उच्चरित शब्द का परिशुद्ध रूप निर्दिष्ट होता है । ध्वनिलेखन के पूर्णत:शुद्ध रूप का परिचय देने के लिये ध्वनिग्रामों का विभीन्न परिवेशों और पूर्वापार ध्वनियों के संदर्भ में उच्चरित रूप निर्धारण आज अनेक वैज्ञानिक यंत्रो के माध्यम से किया जाता है । ध्वनियों के सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम वैशिष्ट्य का बोध कराने में इन यंत्रोंका विशेष योगदान है । इनके द्वारा अक्षरों पर पड़नेवाले स्वराघात की बलात्मक न्यूनाधिकता और आरोहावरोहात्मक चढ़ाव उतार भी यंत्रों से पूर्ण रूप में परिज्ञान हो जाते है । तदनुसार निर्मित उच्चारण— वैशिष्ट्य— बोधक संकेतचिह्नों के द्वार कोश के शब्द का विशुद्ध उच्चारणरूप आकित होता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि भाषाविज्ञान की इस क्षेत्र में नई नई उपलब्धियों और आविकृतियौं से कोशरचाना का कार्य पुष्ट हो रहा है ।

अर्थविकास

कोशें का कदाचित् सर्वधिक महात्वशाली प्रयोजन है शब्दार्थ का ज्ञान करना । भाषाविज्ञान का इस अंश में अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । यद्यपि सिमांटिक्स अर्थात् अर्थविज्ञान को भाषाविज्ञान की अंगशाख के रूप में महत्व अपेक्षाकृत अर्वाचीन है, और साथ ही अनेक आधुनिक विचारक इस शाखा को भाषाविज्ञान से पृथक् भी बताने लगे हैं, तथापि अभी अनेक लोग द्वार इसे भाषाविज्ञान का ही एक पक्ष माना जाता है । कोश के प्रौढ़ और सूक्ष्म अर्थबोधन में इस शाखी की उपजीव्याता बहुत आधिक है ।

शब्दव्युत्पतित्त के निर्देशक्रम में भी केवल ध्वनिसाम्य अथवा ध्वनि — विकास— संबंधी नियमों की प्रयोगयोग्यता ही पर्याप्त नहीं हैं । अर्थपक्ष को छोडकर केवल ध्वनि या रूपपक्ष, का आधार लेकर चलने से कभी कभी व्युत्पतियाँ अत्यंत भ्रामक और अशुद्ध हो जाती है । अत:कोशनिर्मण में व्यत्पत्ति के द्वारा परंपरा या अर्थविज्ञान का विनियोग बड़ा ही महत्व रखता है ।

इन कुछ मुख्य त्थ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि भाषाविज्ञान का आधुनिक कोशविज्ञान पर व्यापक प्रभाव है । कुछ बातों को छोड़कर प्राय: कोशविज्ञान के समस्त आधारिक तत्वों पर साक्षात् या परंपरया आधुनिक भाषाविज्ञान का व्यापक प्रभाव है । निघंटु के निरूत्काख्य भाष्यकाल से ही भारतवर्ष में कोशविदिया के क्षेत्र में प्रयक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से व्याकरण, भाषाविज्ञान और व्युत्पत्ति शास्त्र की उपजीव्यता का संकेत मिलने लगा था । आज वह प्रभाव अधिक स्पष्टतर का संकेत मिलने लगा था ।

निष्कर्ष ।

हिंदी शब्दसागर से पूर्व

भारत में पाश्चात्य कोशों और कोशकारों के संपर्क और प्रभाव से आधुनिक ढंग के कोशों का निर्माण प्रचलित और विकसित हुआ । हिदी के आधनिक कोशो की चर्चा की जा चकी है । प्रथम संस्करण की भुमिका में भी इसका सिहावलोकन किया गया है । इन्हें देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि पहले के हिदी कोशों में प्रथम था ' पादरी- आदम' का हिदी कोश जो १८२९ में 'कलकता' से छपा । इसके पूर्व के कोश पाशचात्यों द्वारा पाशचात्य लिपि और भाष के माध्यम से बने । गिलक्राइस्ट, जान शेक्सपियर, टेलर, विलियम हंटर आदि पाश्चात्यों द्वारा निर्मित कोश सामान्यत: हिदुस्तानी कोश कहे गए है । उनमें संगृहीत शब्दों को प्राय: फारसी नागरी और रोमन लिपियों में रखा गया है । फैलन का कोश विशेष महत्व रखता है कयोकि इसमें हिदुस्तानी साहित्य, लोकगीतों और बोलचान की भाषा से उदाहरण उपस्थित किए गए हैं । परंतु प्लाट्स का कोश हिदी और उर्दू के अंशों को पृथक् कर देता है । पादरी आदमी का कोश ही शब्दसागर के प्रथम संस्करण की भूमिका के अनुसार हिदी का ऐसा सर्वप्रथम शब्दकोश बताया गया है जो देवनागरी लिपि और हिदी भाषा में प्रकाशित हुआ । इसके अलावा शब्दसागर की भूमिका में ही बाद के हिदी काशों की एक सूची दी गई है । १८७३ में श्री राधेलाल हेडमास्टर का काशी से प्रकाशित हिदी कोश पाया जाता है । इन सबकी विर चर्चा ऊपर हो चुकी है। इन कोशों मेंद्यपि पाश्यय—कोश—विद्या के सिद्धांतो का प्रौढ़त
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से पालन नहीं हुआ हैं तथापि उसी पद्धति पर चलने का आरंभिक प्रयास शुरू हो गया था । आकारादिवरणानक्रम इनकी सर्वप्रथम विशेषता है । परंतु वह क्रम भी पुरानी कोशों में पूर्णत: व्यवस्थित नहीं था ।

हिदी शब्दसागर के पूर्व निर्मित हिदी कोशो में शब्दसंग्रह का मुख्याधार संस्कृत शब्द ही थे । व्यवहारी की भाषा में प्रयुत्क शब्दों का भी संकलन हुआ; परतु वह अपेक्षाकृत काम ही रहा । इन कोशों में व्याकरणपरक निर्देश और शब्दार्थबोध के, लिये प्राय: पर्याय दिए जाते थे । व्याख्या कही कही दे दी जाती थी: परंतु बहुधा संक्षिप्त और अपूर्ण रहती थी । किसी किसी कोश में व्युत्पति देने की चेष्टा है पर वह प्रामाणिक और भाषावैज्ञानिक नहीं है; और न उस युग में इसकी आशा ही की जा सकती । उदाहरण उद्धृत करने की और सर्वथा उपेक्षा भाव लक्षित होता है ।

इन सब कारणों से हिदी शसब्दसागर से पूर्व की कोशरचना का स्वरूप और स्तर बाल्यावस्थ का ही कहा जा सकता है । प्राय: एक व्यत्कि के प्रयास से निर्मित इन कोशों में विशेष प्रौढता तत्कालीन कोशचेतना के हिदी विद्वानों में युगबोध के अनुरूप ही था । इनका प्रयोजन मुख्य शब्दार्थज्ञान करना था; और वह भी पर्याय द्वारा । इनमें संकलित अधिकांश शब्द संस्कृत, हिदी आदि के पूर्वर्ती कोश से ही ले लिए जाते थे और एक जिल्द में व्यवहारोपयोगी कोश तैयार करना ही इन कोशकारों और कोशों का मुख्य प्रयोजन था ।

हिंदी शब्दसागर के द्वारा हिदी में जिस प्रकार का महत्वपूर्ण और नूतन कोश विज्ञान की रचनादृष्टि से समन्वित भाषा के महाकोश बनाने की प्रेरण मिली और तदनुकूल प्रय़ास किया गया, उसका संकेत प्रथम संस्करण की भूमिका में प्रधान संपादक बाबू श्यामसुंदरदास द्वारा किया गय है । यहाँ उनकी उद्धरणी अनावश्यक है । इस संबंध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि डा० श्यानसुंदरदास के नेतृत्व में और आचार्य रामचंद्र शक्ल जैसे मर्मज्ञ आलोचक और हिदी साहित्यविज्ञ के सहायकत्व में तथा बालकृष्ण भट्ट श्री अमीर सिह, श्री जगन्मोहन वर्मा श्री (लाला) भगवानदीन और श्री रामचंद्र वर्म के संपादकत्व में अनेक विद्वानों, कार्यकर्ताओं के सहयोग से संपादित और निर्मित यह कोश एक महान् प्रयास । साधन और परिस्थितियों के विचार से उत्क महाकोश के संपादन में सभा के कर्णधारों और कोश के कार्यकर्ताओं को महान् सफलता प्राप्त हुई । यज ठीक है कि पाशचात्य भाषा के प्रौढ़ कोशों की तुलना में इसमें अनेक कमियाँ रह गई हैं । फिर भी ईसकी कुछ उपलब्धियाँ है जो स्तुत्य और अभिनंदनीय हैं । यह भी कहा जा सकता है कि हिदी शब्दसागर के अनंतर बने हिदी के सभी छोटे बड़े कोशों का यही महाकोश उपजीव्य और आधार रहा । आक्सफोर्ड़ इंगलिश ड़िक्शनरी के प्रथम सस्करणं की रचना । का कार्यरंभ हो गया था । १८५७ ई० से १८७९ ई० तक उसकी तैयारी आदि होती रही; और १८८४, ( १८ १।१८८४) ई० में उसका प्रथम आग्रिम संपादित प्रारूपांश छपकर सामने आया । ११८८५ ई० लेकर १९२८ ई० तक संपादन और प्रकाशन के कार्य चलते रहे । लगभग ४४ वर्षो में उसका प्रकाशन हुआ । असके तैयार होने में ७६ वर्ष लगे । पर उसकी बहुत सी आधीरिक सामग्री उससे पुर्व ही डा० जानससन, रिर्डसन और वेब्स्टर के कोशों में संकलित हो चुकी थी । उनकी सहायता मिली, यद्यपि उसे भी व्यवस्थित और सुनियोजित करने में बहुत बडा श्रम करना पडा । हिंदी शब्दसागर का संपादन साधन और आधारिक सामग्री को देखते हुए अपने आपमें स्तुत्य और सफल प्रयास था । नव्यकोशविज्ञान की दृष्टि मे आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के स्तर से नीचे होन पर भी वह उपलब्धि बहुत बडी रही ।

पूर्ववर्ती अधिकांश हिंदी कोशों की भाँति यह कोश एक व्यक्ति द्वारा निर्मित न होकर भाषा और साहित्य के मर्मज्ञ अनेक सुधियों द्वारा तैयार किया गया है । शब्दसंकलन के लिये केवल पुराने कोशों का ही आधार न लेकर ग्रंथों और व्यवाहरयक्त भाषा और बोलियों के प्रायः समस्त उपलब्ध सामान्य और विशेष शब्दों के संग्रह का उसमे प्रयास हुआ है । प्रायः प्रत्येक शब्द का मूल स्रोत देखने के प्रयास के साथ साथ विभिन्न भाषामूलक स्त्रोतों का निर्देश करने की चेष्टा हुई है । व्युत्पत्तियाँ बद्यपि बहुत सी ऐसी हैं जो संदिग्ध और भ्रामक अथवा कहीं कहीं अशुद्ध भी हैं तथापि उसके लिये यथासाधन और यथाशक्ति जो प्रयास है वह भी अपने आपमे बड़ा महत्व रखता है । व्युत्पत्तिनिर्देश का स्वरुप भी विकासक्रम के विभिन्न स्तरों में उपस्थित नहीं किया जा सका है । फिर भी पूर्ववर्ती हिंदी कोशों की तुलना में शब्दसागर की व्युत्पत्ति विषेयक अग्रगति पर्याप्त महत्व की है । हिंदी के कोशकार आज भी इस दिशा में बहुत आगे नहीं बढ पाए हैं ।

हिंदी शब्दसागर में अनेकत्र उदाहरणों का सहयोग लिया गया है; परंतु प्रथम शब्द के प्रयोग का ऐतिहासिक कालनिर्देश नवीन संस्करण में भी संभव नहीं हो सका । इस संबंध की असमर्थता का निर्देश किया जा चुका है । पर दूसरी ओर व्याकरणमूलक व्यवस्था और तदनुसार शब्द एवं अर्थ के व्यवस्थित निर्देश का हिंदी शब्दसागर में अत्येत प्रौढ विनियोजन दिखाई देता है । पर्याय- निर्देशन पर जहाँ एक ओर संस्कृत कोशों का व्यापक प्रभाव है और प्रायः अधिकाधिक यौगिक पदो का उल्लेख भी संस्कृत व्याकरण पर अधिकतः आधारित है वहाँ दूसरी ओर हिंदी की प्रकृति और प्रयोग- परंपरा का आकलन और संकलन भी बडे यत्न और मनोयोग के साथ किया गया है । हिंदी के मुहावरों और लोकोक्तियों या प्रयोगों अथवा क्रियाप्रयोगों की प्रयागपरंपरा से आगत अर्थों की व्याख्या भी— इसमें पर्याप्त प्रौढ है ।

अर्थनिर्धारण में व्याख्यात्मक पद्धति अपनाई गई हैं । पर साथ ही मुख्य शब्दों के अंतर्गत अधिकतः पर्याय भी रख दिए गए हैं ।इस कारण कभी कभी ऐसा भी लगता है कि यह कोश आधुनिक ढंग का पर्यायव,ची और नानार्थक कोश एक साथ बन गया है । व्याख्यात्मक पद्धति के अंतर्गत व्यक्ति, विषय, वस्तु आदि का पौराणिक, ऐतिहासिक, शास्त्रीय और परंपरागत अनेक प्रकार के परिचय एवं विवरण यथास्थान दिए गए है । इस कारण यह कोश विश्वकोश, ज्ञानकोश चरितकोश और पारिभाषिक कोश के परिवेश का भी यत्न तत्न स्वर्श करता देखाई देता है । कुछ कुछ यही दशा है आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के प्रथम संस्करण की ।
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शब्दौं की प्रयोगसपृत्क अर्थच्छाया ( शौड़्स आव मीनिग) की भिन्नता को भी २टअनेतक स्थलों पर स्पष्ट करने का प्रयास लक्षित होता है। फिर भी इस दिशा का कार्य अभी ऐर श्रम अपेक्षइत करता है। शब्दों के समस्त अयोँ की प्रयोगपुष्टि और प्रामाणिकता के निमित सर्वत उदाहरण नहीं हैं। जहाँ हैं वहाँ भी बहुधा ग्रंथों के नाममात्र ही निर्दिष्ट हैं। उनेक प्रसंगस्थल और संस्करण का उल्लेख नहीं है । उनेक स्थलों पर बोलचाल के स्वनिर्मित उदाहरण भी निर्योजित किए गए हैं। सब समालकर इसमें शब्दसंग्रह और अर्थविवृति दोनों की परिधि को ययासंभव व्यायक और विस्तृत बनाया गया है। इस क्षेत्र में विभइन्न पेशो और वर्ग के जनजीवन से संगृहीत शब्दभंड़ार की संयोजना से इस कोश का महात्व बहुत बढ़ गया है।

हिंदी शब्दसागर के अनंतरक

हिंदी शब्दसागर के प्रथम संस्करण का प्रकाशन जब हुआ तब हिंदी में अंग्रेजी आदि जाननेवालों के सामने कोशविज्ञान के अपेक्षाकृत प्रौढ़ और विकसित रूप का प्रतिमान उपासित हुआ।

संक्षिप्त हिदी सब्दसागर को हन हिदी कोशों का प्रथम व्यावहारिक और प्रामाणिक संस्करण कह सकते हैं। इसमें मुख्यतः संक्षेपीकरण ही किया गया है। हाद के संस्करणों में थेड़ा बहुत शोधन- वर्धन होता रहा। षष्ट संस्करकण में अवश्य ही व्युत्पत्ति के नीर्देश में कुछ नई पद्धति अपनाई है। स्वलप कुछ ही विशेष उपब्धि है। अन्य अनेक कोशी भी समय बने परंतु ज्ञानमड़ल का बृहद् हिदा शब्दकोश कुछ दृष्टि से नवोनता लेकर सामन आता है। इस कोश में संस्कृत कोशों स लेकर हजारों शब्द० — मूल और यौगिक — बड़ाए गए है। इनमें बहुधा ऐसे दिखाई पड़ते हैं जो जो हिदी में प्रयुत्क है। इस कोश की नवीनता है संस्कृत कोशों के अनुकरण पर पेचेवाली पद्धति को यथाशत्कि अपनान की चेष्टा । इस पद्धा के अनुसार एक मूल शब्द के अंतर्गत उससे बने अनेक व्युत्पन्न रूपो और यौगिक पदों का समावेश किया गया है। इसमें पूणता न होने पर भी इस सपरणि का, जहाँ तक हमें ज्ञान है, कदाचित् व्यापक रूप से पहली बार हिदी के कोश में प्रयोग हुआ है। अंगरेजी, संस्कृत ऐंद के कोश का यह पद्धति हिदी में लाकर इस कोश न हिदी कोशो के निर्माण में नवीनता पैदा को। पर इस,क अनुसरण में हिदी काशों के दिये अनेक कठिनाइयाँ आ जाता है। व्युत्पन्न ओर समासयुत्क योगिक पदो के मूल शब्द के अतगर समावशन से आनुपूवा के अनुसार शब्दक्रम क स्थापन म पूर्ण व्यवत्था काठन हो जाता है। व्याकरणक ध्वनिविकारों और सीधेमूलक ध्वानपीरवतना के कारण शब्दक्रम-योजना अस्तव्यस्त हान लगती है। उदाहरण के लिये वचने शब्द के अंतर्गत यीद ' वाचन' ङई जाय और इतिहासक अंतगत 'ऐतिहासिक', 'व्याकरण' के अतंर्गत ' वैयाकरणं' शब्द समाविष्ट हों 'सबं' के अंतर्ग 'सावदीशक', 'सावभागम' आदि शब्द रख दिए जायँ तो शब्द— क्रम— स्थापना की जी पूवपिर अस्तव्यस्तता उत्पन्न होती है वह एक समस्या बन जाता है। उसका सवमान्य निशच्य ओर स्वीकरण किए बिना हिदी कोशी में पद्धति का अपनाना कुछ कटिन हो जाता है। फिर भा ज्ञानमंड़ल के काश में यह प्रयास नवीन हो कहा जायगा। ऐसी या कठिनाइयो का प्रश्न भी उत्क कोश के संपादकों के सामने आया था, और उसके समाधान की एक पद्धति भी उन्होंने अपनाई है। पर जब तक वह स्वीकृत न हो तब तक उसका ग्रहण सर्वत्र नहीं हो सकता। कोशों से गृहीत या नवसमाविष्ट शब्दों के अतिरिक्त अधिकतः हिंदी शब्दसागर का ही व्यापक उपयोग किया गया है।

शब्दसागर के सहायक संपादकों में श्री रामचंद्र जो भी थे। संक्षिप्त हिदी शब्दसागर के बाद अतिरित्क हिदी कोश के नाम से उन्होंने एक ग्रंथ संपादिन और प्रकाशित किया। संक्षिप्त- शब्दसागर के आरंभइक अनेक संस्करणों यका उन्होंने संपादन भी किया था। हिदी कोश से संबद्ध मनेक प्रश्न और संक्षिप्त शब्दसागर की अनेक कमियों की ओर उनका ध्यान जाता रहा। उनेक निशाकरण को चेष्टा में भी वे यथासाध्य प्रामाणिककोश के संपादन के पूर्व तक लगे रहे। प्रामाणीक हिदी कोशो के वस्तुत: सभआ के संक्षिप्त शब्दसागर का कुछ सुधार हुआ रूप मात्र था। कोशकला की दृष्टि से उमें नूतन विकास नहीं हो पाया। नालंदाविशाल शब्दसागर नामंक— दिल्ली से प्रकासित एक हिदी कोश — बड़े विज्ञापन और बड़े प्रचार के साथ सामने आया० हिदी शब्दसागर को पूर्णत: लेकर और मतमाने ढ़ंग से उसके अगों, अंखओं को काट छोटकर यत्रतत्र कुछ अनावश्यक नए शब्दों को जोड़कर इसका ढ़ाँचा खड़ा किया गया । पर शब्दसंख्या की दिखावटी वृद्धि के अतिरितिक इस एक जिल्द के ' विशाल' विशेषणवाल् शब्दसागर में कोइ भी ऐसी खास बात नहीं, जो कोशरचना के को ऊपर उठा सके । ऐसी अव्यवस्थाएँ अवश्य है जिनके कारण हिदी की कोश— रचना— विद्या उस स्तर से कुछ लीचे खिसक आई जिसे सब्दसागर द्ववारा निर्धारित और आधिगत किया गया था।

हिदी सहित्य संमेलन दावारा प्रकासित और श्री रामचंद्र वर्मी के संपादकत्व एवं निर्देशन में निर्मित मानक हिदी काश — इस दिशा में एक महत्वपूर्ण दूसरी और नवीन विशाल ग्रथ है। इसके आरंभिक निवेदन में संपादक ने उत्क कोश का अनेक विशेषताओं का निर्देश किया है जिन्हें उन्होंने (१) शब्दों के रूप और अक्षरी, (२) निरूत्कि या व्युत्पत्ति, (३) शब्दों के अर्थ और विवेचन, (४) अर्थों का क्रम, (५) अर्थे का वर्गीकरण, (६) अर्थौ के सूक्ष्म अतर, (७ ) मुहावरे, (८ ) अदाहरण, (९) अन्यान्य संशोधन और (१०) अँगरेजी पर्याय, इन शीर्षक के अंतर्ग निर्दिष्ट किया हैं। पर स्वयं इन्होंने कहा है कि मानक हिदी काश भी सभी आधुनिक हिदी कोशो का तरह हिदी शब्दसागर की भिति पर ही आधारित है। फिर भी बहुत सी वातीं और विवलणों में अनेक परिवर्तनों के कारण उत्क कृति में कोशरचना का ढ़ाँचा बदल गया है। इसके कारण वे अपने संपादन पर गौरख भी अनुभव करते हुए कहते है— ' उसको बिल्लकुल' नया, युत्किसंगत, वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित रूप दिया गया है। उनका कथन है कि शब्दार्थविवेचन में केवल अन्य कोशों का आधार न लेकर उनके प्रयोगी के प्रटलित पक्ष का भी सहारा लिया गया है।


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आधुनिक कोश:नियोज्य उपादान और पद्धति

आधुनिक शब्दकोशों के बहुत से कार्य वैज्ञानिक पद्धति से होते है । भाषाविज्ञान के प्रयोगात्मक विज्ञान के रूप में इसमें श्रम करना पड़ता है । उतम कोश के लिये विषयगत वर्णन के पद्धतिसिद्धांत का सामान्यीकरण और निरंतर प्रतिसंश धन अपेक्षइत रहता है । भाषाविज्ञान के वर्णेनात्मक पक्ष की उपयोगिता यहाँ प्रत्यक्ष है । संकलित शब्द के में निम्नलिखित बातों की सही जानकरी देना । आवश्यक होता हैं । (१) वर्णनुपूर्वी, (२) उच्चारण रूप, (३) व्याकरणिक शब्दभेद की सूचना, (४) प्रकृति — प्रत्यय— विवेक, (५) व्युत्पति, (६) वर्तमान एक या अनेक अर्थ, (७) प्रचीन शब्दार्थ, (८) अपर- शब्द०— संनिधि— मूल शब्दयोग और उसका अर्थ, (९) अव्युत्पन्न शब्द, (१०) पर्यायि और (११) अर्थो के भेद पर आधारित अर्थच्छायाएँ ।

इनके अतिरित्क शब्दार्थ की आवश्यक व्याख्या और संदर्भसंपृत्क सूटनाओं का विवरण भी दिया जाता है । यहाँ शसब्दकोश द्वारा ज्ञानकोशात्मक और विश्वकोशात्मक पद्धति की विशेषता का स्पर्श हो जाता है । कभई पर्याय से, कभई लंबे कथनों द्वारा शब्दबोध्य अर्थ का भावधारा या संयुत्क भावना सुचित करना आवश्यक हो जाता है । इसके लिये अन्य शब्दों, विवरणों या चित्रों और रेखाकृत्यों द्वारा ज्ञान कराया जाता है । इसी प्रकार प्रसंगगर्भित अर्थ भी व्यत्क करना पड़ता हैं, कभी कभी अर्थप्रकाशक उद्धरणों का उपयोग भी आवश्यक हो जाता है ।

हिंदी कोश में शब्दसंकलन— कुछ समस्याएँ

निर्मेय कोश के अनुरूप शब्दसंकलन भी बड़ी सावधानी से और विवेकपूर्वक करला पड़ता है । साथ ही अर्थसंकलन भई करना पड़ता है । इसका तात्पर्य यह है कि भाषा में नवीन अर्थचित्रों और अभइव्यत्कि- दृष्टियो का आयात होता रहता है । कभी पुराने ही शब्दों से और कभी नए शब्दों या शब्दयोगों द्वारा इनका अभिव्यंजन होता है । अत: शब्दसंकलन के साथ भाषा में नवागत अर्थचित्रों, विचार- विवों और अर्थबोध के रूपों का संकलन, शब्दसंकलन के साथ साथ भी उत्तम कोशों में संयोजित करना आवश्यक होता है । इसलि संकलयिता और संपादक के लिये प्रबुद्धता, जागरूकता और भाषाप्रयोग के विस्तृत क्षेत्र की गहरी जानकरी अत्यंत अपेक्षित होती है, उनके लिये तत्तदद्विषयों का प्रौढ़ ज्ञान और ताटस्थ्याबोध भी आवश्यक है । कोशोपयोगी शब्द और अर्थ के संग्रह और त्याग की शक्ति और उस क्षे्त्र में गहरी पैठ नितांत उपयोगी होती है । तत्तदविषय के मर्मज्ञ और कोशक्रार्य की बोधचेतना से समन्वित पुरूष अच्छे कोश के उत्तम शब्दसंकलन में सहायक हो सकते है । वे ही इस क्षेत्र के संग्रह और त्याग का मर्म ठीक ठीक पहचान सकते है । जो नए एवं विलक्षण— शब्द और अर्थ प्रयोग भाषा में काफी चल पड़े हो, उनका संग्रह होना चाहिए । यदि वे मान्य हो गए हों तो उनका संग्रह अनिवार्य हो जाता है ।

हिंदी कुछ विलक्षण भाषा है । यह राष्ट्रभाषा है और बड़े भारी भूभाग की व्यवहारभाषा भी है । किसी अंचल की पूर्णरूपेण मातृभाषा न होते हुए भई लगभग २० करोड़ जनता के व्यवहार में इसका प्रयोग होता है । इसके अंतर्गत अनेक आंचलिक बोलियां हैं, विभाषाएँ हैं, मातृभाषाएँ हैं । ऐसी भाष का जव व्यापक भूभाग में शिष्ट और साहित्यिक भाषा के रूप में व्यवहार होता है तब आंचलिक और सीमावर्ती क्षेत्रों की १बोलियों और भाषाओं के शब्दार्थो का संग्रह और त्याग दुष्कर समस्या बन जाती है । इसका समाधान कठिनतर हो जाता है । फइर भी कोशसंपादकों लिये अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर रास्ता निकालने की चेष्टा करना आवशयक हो उठता है ।

संख्यावृद्धि

शब्दसंग्रह का ही दूसरा पहलू है शब्दसंख्या की वृद्धि । इसमें कभी तो वैकल्पिक विकसित तद्भव या अपभअरष्ट रूपो के कारण संख्यावृद्धि होती है, और कभी भाषा में नवोद्भूत, नवागत, नवोद् भवित और नवायातित शब्दों के सहायोग से शब्दवृद्धि होती है । किसी भी जीवित भाषा में सामाजिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, शैक्षणिक तथा प्राविधिक आदि ज्ञान विज्ञान का विकास और विस्तार होने पर नित्य नए नए शब्द आते रहते है । विचार के नए कोए कारण नई शैली और बोध्यार्थ की अभीव्यत्कि की नूतन बोधचेतना के कारण कुछ प्रचलित या पुराने शब्दों से भी परंपरागत अर्थ के अतिरितिक कथ्य और वाच्य का बोद कराय जाता है । कभी नए शब्द यौगिक- समस्त पद अथवा नवकायित ( न्यूकाएंड़ ) शब्दों के राछ्यम से तद्भाषाभाषी समाज की अभइव्यंजनीय विवक्ष की पूर्ति का प्रयास होता है ।

नवीन शब्दों— अर्थो का प्रशन

हिंदी जीवंत भाषा है । राष्ट्रभाषा हो जाने के बाद देश और काल की संपूर्ण परि स्थितियों के अनुरूप उसकी बोधसीमा और वाच्यश क्ति के आयामों का विस्तार अपेक्षित भी है, अवश्यभांवी भी । उद्योग, व्यवसाय, ज्ञान विज्ञान आदि के क्षेत्र में वर्तमान युग के समस्त आवश्यक अर्थरूपों और अर्थबिबों की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिये — इसी कारण हिदी प्रयत्नशील है । ज्ञान विज्ञान की सैकड़ों शाखाओं से परिभाषिक, प्रविधिक और नव्य अर्थबोध के अभिधेय अथवा प्रतीकबोध्य, अर्थरूपों की अभीव्यंजना का वह प्रयास कर रही है । अत: हिंदी का कोशकार्य भविष्य में भी सर्वदैव तब तक निर्माण- प्रक्रिया के क्रम में ही रहेगा जब तक यवह जीवंत भाषा वनी रहेगी । अत: यथाशत्कि शब्द— संख्या— वृद्धि भी सर्वदैव अत्यंत आवश्यक रहेगी ।

पारिभाषिक, वैज्ञानिक, प्रविधिक एवं नानाशास्त्री य शब्दकोशों के निर्माणि में भारत सरकार की ओर से बड़े विशाल पैमाने पर कार्य हो रहा है । तत्द्व षियों के विशेषज्ञों और हिंदीविज्ञों के सहयोग से अंग्रेजी हिंदी के शब्दसंग्रहात्मक कोश वन रहे है । ' पारिभाषिक शब्दसंग्रह', ' विज्ञान शब्दावली' ( साइंस ग्लासरी) और ' पदनाम शब्दावली आदि बन चुके हैं । ड़ा० रधुबीर ने भी ऐसे अनेक कोश बनाए हैं ।

शब्दसागर के अनंतर बनेवाले निर्दिष्ट कोशों में प्रया: सर्वत्र संख्यावृद्धि की चर्चा हुई है । परंतु यह कार्य इसलिये अत्यंत कठिन है कि पूर्वोत्क शब्दार्थ के संग्रह और त्याग का प्रश्न बड़ा हा बैदुप्य-
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साद्धय, साधनसाद्धय और श्रमसाद्धय है । शब्दसागर के नवीन संस्करण में संगृहीत नवीन शब्द आतीत के हिंदी साहित्य के स्त्रोत से ही आधिकांश लिए गए हैं । आधुनिक हिंदी वाङमय के अपेक्षाकृत नव्य ग्रंथों से कम शब्द ही जोड़े गए हैं । प्रिभाषिक, वैज्ञानिक और प्रविधिक प्रकृति के नवप्रयुक्त शब्दों का इसलिये संग्रह नहीं किया जा सका है कि उसका सर्वसंमत और प्रामाणिक रूप अभी निश्चित नहीं हो पाया है । वैज्ञानिक, प्राविधक आदि संबंधी हिंदी ग्रंथों के विभइन्न लेखकों द्वारा जो शब्द प्रयुक्त हुए हैंया हो रहे उनमें अत्यधिक अनेकरूपता है , सर्वमान्य एकरूपता का अभ व है । अंग्रेजी शब्दों के अर्थानुवाद की भावना से लेखकों द्वारा एक अर्थ के लिये अनेक शब्द चल रहे हैं । विभिन्न ज्ञान विज्ञान और तकनीकी क्षेत्रों की पारिभाषिक और प्राविघिक शब्दावली भारत सरकार तैयार कर रही है । कुछ विषयों के शब्दों के रूप और अर्थ का निर्धारण होने के बाद कुछ शब्दावलियों का प्रकाशन भी किया जा चुका है ।

यहां कथ्य इतना है कि जीवित भाषा के् कोशों की शब्दसंख्या में वृद्धि और तदनुरूप अर्थविस्तार एक ऐसी क्रिया है जिसकी निरंतर गरिशीलता नितांत अपेक्षित है । पदार्थ के संग्रह और त्याग के मर्म को पहचान कर ही यह कार्य होना चाहिए । नवीन संस्करणों या नवीन परिशिष्ष्टों द्वारा शब्दसंख्या की वृद्धि होती रहनी चाहिए । पेचेवाली पद्धति के उपायों से यद्यापि अनावश्यक शब्द— संख्या— वृद्धि से बचा जा सकता है , तथापि हिदी कोशो में उसका प्रयोग तभी समीचीन होगा जब हिंदी के प्रौढ क शकारों द्वारा कोई व्यवल्था सर्वमानय हो जाय ।

मानक रूप

शब्दों के ग्राह्म, मानक या परिनिष्ठित रूप के स्थिरीकरण की भी एक विशिष्ट सम,स्या है । वैकल्पिक अथवा तद्भव शब्दों के नाना रूप भी शब्दार्थ नियोजन में कठिनाई उपस्थित करते हैं । संज्ञा और क्रिया के नाना रूपों में विशेष रूप का मानकत्व और मानकीकरण विवाद का विषय है । आंचलिक बोलियों के प्रभाव से ऐर काल, वाच्य., वचन, भाव, विधि आदि के कारण क्रियापदों के नाना रूप सामने आ जाते हैं । अत: उनका ग्रहण संभव नहीं हो पाता । हिंदी में सामान्य अथवा क्रियार्थाक्रिया के नाकारंत रूपों द्वार क्रिया पदों की निर्मापक धातु का निर्देश किया जाता है । इन समस्याओं पर विचार करते हुए एक ओर तो सभा का कोशोपसमिति ने क्रियार्थाक्रिया के रूपों को मूल मानकर उनका ग्रण किया है; दूसरी ओर ऐतिहासिक, भौगोलिक, भाषाशास्त्रीय अथवा तद्भवता से प्रभावित संज्ञारूपों को अपनाया है । परंतु व्याकरण के कारण सामान्य रूपावली को छोड़ देना पड़ा है । संज्ञ ओं ओर विशेषणों के प्रसंग में स्त्री लिंग के विशिष्ट रूपों का निर्देश तत्सम या तत्समाभआस रूपों के् कारण भी कभी कभी शब्दवृद्धि की समास्या सामने आती है । ' इतिहास', ' भूगोल' से व्युत्पन्न ऐतिहासिक, भूगोलिक शब्दों के बजाय कुछ लोग ' इतिहासिक', भौगोलिक आदि शब्द प्रयोग करते है । यहां तत्सम रूप को ही परिनिष्टित मानने का पक्ष प्रवल है। इसी तरह से विदेशी शब्दों के उच्चारणमूलक विभिन्न रूप प्रचलित हैं जैसे, ' इटली', इतली, इताली' अथवा ' योरप, यूरोप' आदि । हिंदी कोशकारों के लिये इनमें भी मानकीकरण करना कठिन हो जाता है ।

इस प्रकार के अनेक प्रश्न कोशसंपादन उपसमिति के समक्ष समय समय पर आते हैं। उपसमिति के सदस्यों ने विचार विनिमय के अनंतर जो निश्चय किए हैं उसी पद्धति पर संपादन का कार्य चलता रहा । उसकी यथाशक्ति परिणति ही परिवर्धित संशोधित हो कर शब्दसागर के नवीन संस्करण के रूप में प्रस्तुत हो रहा है ।

१८।१२।६५

नागरी प्रचारिणीसभा, काशी ।

करूणापति त्रिपाठी

[संयोजक, संपादक मंड़ल]

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