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   1) पाँसा pām̐sā (p. 2923)

पाँसा pām̐sā

संज्ञा पुं॰ [सं॰ पाशक]

हाथीदाँत या किसी हड्डी के बने चार पाँच अंगुल लंबे बत्ती के आकार के चौपहल टुकड़े । उ॰—(क) चौपर खेलत भवन आपने हरि द्वारिका मँझार । पाँसे डार परम आतुर सों कीन्हें अनत उचार ।—सूर (शब्द॰) । (ख) कौरव पाँसा कपट बनाए । धर्मपुत्र को जुवा खेलाए ।—(शब्द॰) ।
    विशेष—इससे चौसर का खेल खेलते हैं । ये संख्या में होते हैं । प्रत्येक पहल में कुछ विंदु से बने रहते हैं । उन्ही बिंदु की गणना से दाँव समझा जाता है ।

क्रि॰ प्र॰पड़ना ।फेंकना ।

मुहा॰पाँसा उलटना = किसी प्रयत्न का उलटा फल होना । पाँसा उलटा पड़ना = दे॰ 'पाँसा उलटना' ।

   2) पाँसासार pām̐sāsāra (p. 2924)

पाँसासार pām̐sāsāra

संज्ञा पुं॰ [हिं॰ पाँसा + सं॰ सारि]

चौपड़ । उ॰— पाँसासारि कुँअर सब खेलहि गीतन सुवन ओनाहिं । चैन चाव तस देखा जनु गढ़ छेंका नाहिं ।—जायसी (शब्द॰) ।